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Home विचार शक्ति साहित्य कविताएँ

क्या मुसीबत है – रुसेन कुमार की मार्मिक कविता

इस कविता में रुसेन कुमार ने "मुसीबत" को काफिया बनाकर विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, और मानसिक विषमताओं को विस्तार से व्यक्त किया है।

रुसेन कुमार Rusen Kumar by रुसेन कुमार Rusen Kumar
September 24, 2024
in कविताएँ
Reading Time: 2 mins read
क्या मुसीबत है - रुसेन कुमार की मार्मिक कविता

क्या मुसीबत है - रुसेन कुमार की मार्मिक कविता

हर तरफ़ ये बेबसी, क्या मुसीबत है,
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा, क्या मुसीबत है।

दिल की बातें कह न पाए, ख़ामोशियाँ हैं अब,
लबों पर ताले लगे, क्या मुसीबत है।

रोज़ जूझते हैं हम, हालात की दीवारों से,
हर तरफ़ हैं रास्ते बंद, क्या मुसीबत है।

चाहतों का सागर था, मगर किनारे दूर हैं,
मंज़िलों तक जा न पाए, क्या मुसीबत है।

हर तरफ़ हैं दोस्त, मगर कोई समझे ना दिल को,
अपनों में हैं अजनबी, क्या मुसीबत है।

*****

गरीब की झोपड़ी में छत भी नहीं टिक पाई,
अमीरी के महलों में चैन, क्या मुसीबत है।

पेट भरने की फिक्र हर दिन सताती है,
रोज़गार का भी इंतज़ार, क्या मुसीबत है।

बाज़ारों में तो चीज़ें बढ़ती जा रही हैं,
पर जेबों में नहीं कुछ, क्या मुसीबत है।

बच्चों की पढ़ाई के सपने दूर हो चले,
शिक्षा अब हो गई महंगी, क्या मुसीबत है।

कर्ज़े के बोझ तले दबा किसान का घर,
फसल के भाव भी नहीं, क्या मुसीबत है।

*****

नेताओं के वादों का कोई अंत नहीं होता,
वोट मिलते ही सब ख़त्म, क्या मुसीबत है।

जनता की आवाज़ कहीं खो जाती है यहाँ,
कुर्सी का खेल जारी, क्या मुसीबत है।

नियम बदलते हैं हर रोज़ सत्ता के संग,
जनहित में नहीं कुछ भी, क्या मुसीबत है।

सड़कों पर जनता परेशान, नारे लगाती है,
फिर भी कोई सुनवाई नहीं, क्या मुसीबत है।

सत्ता के गलियारों में होते हैं बड़े-बड़े फैसले,
मगर ज़मीन पर नहीं कुछ भी, क्या मुसीबत है।

*****

जात-पात की दीवारें अब भी ऊँची बनीं हैं,
बराबरी का सपना तोड़ दिया, क्या मुसीबत है।

हर किसी को हक़ चाहिए जीने का यहाँ,
फिर भी मिलती नहीं इज्ज़त, क्या मुसीबत है।

धर्म के नाम पर बँटी हुई हैं ये बस्तियाँ,
इंसानियत कहीं खो गई, क्या मुसीबत है।

लड़ाई हो जाती है बस छोटी-छोटी बातों पर,
प्यार में कोई जगह नहीं, क्या मुसीबत है।

महिलाओं को हक़ की लड़ाई आज भी लड़नी है,
समानता के रास्ते बंद, क्या मुसीबत है।

*****

मन की शांति की अब हर किसी को तलाश है,
भीतर का सुकून खो गया, क्या मुसीबत है।

हर कोई दिखावे की दुनिया में जी रहा है,
सच्चाई से कोई वास्ता नहीं, क्या मुसीबत है।

तनाव और चिंता ने लोगों को लिया जकड़,
खुशियों की राहें दूर हो गईं, क्या मुसीबत है।

रिश्तों में प्यार कम, और स्वार्थ बढ़ गया,
दिल की जगह अब दिमाग, क्या मुसीबत है।

ख़ुद से ही हर कोई लड़ता है हर दिन,
सपनों में भी डर जागता है, क्या मुसीबत है।


पाठकों के लिए

इस कविता में “मुसीबत” को काफिया बनाकर विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, और मानसिक विषमताओं को विस्तार से व्यक्त किया गया है। हर पंक्ति में समाज के किसी एक पक्ष की समस्याओं का वर्णन किया गया है, और यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि कैसे विभिन्न विषमताएँ हमारे जीवन के हर हिस्से को प्रभावित करती हैं।

इस कविता में रुसेन कुमार ने मानवीय भावनाओं, सामाजिक मुद्दों, और जीवन के विभिन्न पहलुओं को बेहद संवेदनशीलता और गहन दृष्टिकोण के साथ प्रस्तुत किया है। उनके शब्दों में न केवल व्यक्तिगत अनुभवों की गहराई है, बल्कि समाज की चुनौतियों और संघर्षों का भी सजीव चित्रण है। उनकी लेखनी में सादगी और वास्तविकता का अनूठा संगम देखने को मिलता है, जो पाठकों के दिलों को छू लेता है।

(कापीराइट – रुसेन कुमार)

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Source: रुसेन कुमार
Via: रुसेन कुमार
Tags: क्या मुसीबत हैरुसेन कुमार की कविताएँ
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रुसेन कुमार Rusen Kumar

रुसेन कुमार Rusen Kumar

रुसेन कुमार, अग्रणी पत्रकार, कवि, लेखक और सामाजिक उद्यमी हैं। छत्तीसगढ़ में निवासरत हैं। सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक विषयों के चिंतन पर उनके सैकड़ों आलेख और 15 पुस्तकें प्रकाशित हैं। छत्तीसगढ़ में निवासरत हैं।

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रुसेन कुमार प्रतिभाशाली पत्रकार, लेखक एवं सामाजिक उद्यमी हैं।

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