रुसेन कुमार द्वारा
कविता
ज़माने को चले थे जीतने,
खुद ही फँस गए जाल में, उल्लू हो।
ख्वाब बड़े दिखाए थे दुनिया को,
हकीकत में कुछ भी ना कर सके, उल्लू हो।
सियासत की चालें खूब चलीं तुमने,
पर खुद ही उलझ गए उसमें, उल्लू हो।
अपनों को भी धोखा दे बैठे,
आइने में खुद से डर गए, उल्लू हो।
सोचा था खुदा से कम नहीं हो,
पर वक्त ने दिखाया कि बस तुम उल्लू हो।
दिल की बातें सुनाई दुनिया को तुमने,
पर दिल से जो सुनीं, वो बोले “उल्लू हो।”
(कापीराइट – रुसेन कुमार)
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