उस राह की मंज़िल थी, मगर तुम समझे नहीं,
क़दमों की भी मेहनत थी, मगर तुम समझे नहीं।
हर बार गिरकर उठना ही जीत की निशानी थी,
हौसलों में भी ताक़त थी, मगर तुम समझे नहीं।
मैंने हर जगह ढूंढी थी कहानी तेरी,
तुम ही तो कविता थे, मगर तुम समझे नहीं।
अमीरी की दीवारें ऊँची होती गईं,
हक़ सबका था बराबर, मगर तुम समझे नहीं।
हर चीख़ में छुपा था दर्द बेसहारों का,
सदाएँ गूंजती रहीं, मगर तुम समझे नहीं।
अंधेरों के बाद ही रौशनी का सबब बनता है,
हार में भी छुपी जीत थी, मगर तुम समझे नहीं।
दिल की धड़कनों में छुपाया था प्यार तेरा,
साँसों में बसी थी, मगर तुम समझे नहीं।
सपनों को पाने की बस जिद ही काफी थी,
संघर्ष में भी सफलता थी, मगर तुम समझे नहीं।
नौकरियाँ छीन लीं और शिक्षा बेची गई,
राहें सबकी एक थीं, मगर तुम समझे नहीं।
हर हार ने सिखाया था कैसे आगे बढ़ना है,
पर सिखाने की भी हिम्मत थी, मगर तुम समझे नहीं।
क़ानून का नाम लेकर लूटा गरीबों को,
इंसाफ़ था हर किसी का, मगर तुम समझे नहीं।
चाँदनी तो सबके हिस्से आती थी यहाँ,
अंधेरे थे उनके भी, मगर तुम समझे नहीं।
हर राह पर बसा था संघर्ष मेहनतकशों का,
मंज़िलें थीं सभी की, मगर तुम समझे नहीं।
ख़्वाब सिर्फ़ अमीरों के नहीं थे इस दुनिया में,
ख़्वाब थे उनके भी हज़ार, मगर तुम समझे नहीं।
अब सड़कों पर गूँज रही है हर गरीब की पुकार,
हक़ तो था उनका भी, मगर तुम समझे नहीं।
अब क्या कहूँ, हर शेर में तुम ही थे छुपे,
ग़ज़ल तुमसे थी, मगर तुम समझे नहीं।
रास्तों में जो ठोकरें थीं, वो सबक थीं तुम्हारे लिए,
चुनौतियों में भी सीख थी, मगर तुम समझे नहीं।
जो वक्त ने दिया था ठहराव, वो फिक्र थी तुम्हारी,
संकेत में भी राह थी, मगर तुम समझे नहीं।
सफलता सिर्फ़ मंज़िल नहीं, रास्ता भी है उसका,
हर मोड़ पर उसकी छांव थी, मगर तुम समझे नहीं।
जिन लफ़्ज़ों से मैंने किया था इज़हार,
वो लफ़्ज़ थे सच्चे, मगर तुम समझे नहीं।
राहें भी तुम्हारी थीं, और मंज़िल भी तुम,
क़दम बढ़े तुम्हारी तरफ़, मगर तुम समझे नहीं।
विफलता थी सिर्फ़ एक पड़ाव, रुकना नहीं इसका मकसद,
आगे बढ़ने की चाह थी, मगर तुम समझे नहीं।
अब तो समझ लो कि जीत उन्हीं की होती है,
जो हार के बाद भी चलते हैं, मगर तुम समझे नहीं।
अब दिल में बची है सिर्फ़ एक खामोश सदा,
दिल भी टूटा था, मगर तुम समझे नहीं।
मेरे ख़्वाबों में भी थी तस्वीर सिर्फ़ तुम्हारी,
ख़्वाब थे हर पल तेरे, मगर तुम समझे नहीं।
चाँदनी रातों में भी था इक तेरा ही नूर,
रातें थीं जगमग, मगर तुम समझे नहीं।
(कापीराइट – रुसेन कुमार)