प्रत्येक पदार्थों का महत्व उसके सदुपयोग करने से होता है, न कि उन पदार्थों की उपलब्धता और अधिकता से।
भारत इस समय एक नये युग की ओर अग्रसर है। शिक्षा के विकास ने लोगों की बौद्धिक क्षमता में वृद्धि की है, जिससे वे अधिक तेजी से प्रगति की ओर बढ़ना चाहते हैं। परंतु, सही मार्ग की खोज में, अक्सर उन्हें यह पता नहीं चलता कि वे किस दिशा में जा रहे हैं। आर्थिक विकास पर केंद्रित होने की इच्छा के चलते, मानवीय मन में भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। दूसरी ओर, एक उत्पाद खरीदने पर दूसरा मुफ्त पाने की चाहत रखने वाले भारतीय उपभोक्ता पृथ्वी के अत्यधिक दोहन को प्रोत्साहित कर रहे हैं और प्लास्टिक, कागज, और थर्मोकोल के उपयोग से स्वच्छ और सुंदर पृथ्वी की सतह को नष्ट कर रहे हैं। इस प्रकार, पृथ्वी की उपजाऊ भूमि कृत्रिम कचरे से दिन-प्रतिदिन ढकती जा रही है।
भारत की समृद्धि के पाँच प्रमुख आयामों का वर्णन यहां विस्तार से कर रहा हूँ। समृद्धि के ये पाँच महत्वपूर्ण तत्व हैं – पृथ्वी, मानवता, समाज, राष्ट्र और लोकतंत्र, तथा अर्थव्यवस्था। ये पांचों तत्व प्रगति और समृद्धि के आधार स्तंभ हैं, और इनके बिना कोई भी विकास संभव नहीं है। आप जहां भी जाएँगे, इन पाँचों तत्वों का महत्व स्पष्ट रूप से दिखाई देगा।
हमारे सभी कार्य और विचार इन्हीं पाँच तत्वों से प्रेरित होते हैं, इन्हीं से जन्म लेते हैं और अंततः इन्हीं में समाहित हो जाते हैं। समृद्धि की चाह हर व्यक्ति में होती है, परंतु समृद्धि के वास्तविक अर्थ को समझना और दूसरों को समझाना जरूरी है। मनुष्य का सहज स्वभाव समृद्धि की ओर उन्मुख होना है। यह मनुष्य की प्राकृतिक प्रवृत्ति है कि वह समृद्धि चाहे। पृथ्वी पर उपलब्ध सभी संसाधन मानव जाति की समृद्धि के लिए ही हैं।
कृषि योग्य भूमि समृद्धि का आधार है। अगर भारत की बड़ी जनसंख्या को प्रकृति के अनुकूल जीने का तरीका नहीं सिखाया जाता है, तो अगले शताब्दी में यह देश कचरे के ढेर में परिणत हो सकता है। – रुसेन कुमार
निश्चित रूप से, भारत की समृद्धि उसके कृषि प्रणाली के साथ घनिष्ठता से जुड़ी है और उसी में समाहित है। कृषि के लिए उपयुक्त भूमि ही समृद्धि की मूल नींव है। यदि भारत की विशाल जनसंख्या को प्रकृति के अनुरूप जीवन जीने की शिक्षा नहीं दी जाती है, तो आने वाले 100 वर्षों में यह देश कचरे का ढेर बन जाएगा। इस बात में कोई शक नहीं होना चाहिए कि आजकल हर व्यक्ति अत्यधिक लालची हो गया है और वह उसी शाखा को काट रहा है जिस पर वह बैठा हुआ है।
भारत के प्रधानमंत्री, श्री नरेंद्र मोदी, देश को एक महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित करने की दिशा में कटिबद्धता से काम कर रहे हैं। भारत की आर्थिक स्थिति को अधिक अच्छी तरह समझने के लिए, मैं अपने विचारों को व्यवस्थित तरीके से प्रस्तुत कर रहा हूँ।
धरती
धरती हमारी आकाशगंगा में एक अद्वितीय ग्रह के रूप में समृद्ध है। इसकी समृद्धि स्वाभाविक है। इस समृद्धि को विकसित करने की बजाय, हमें मानवीय हस्तक्षेप से इसे सुरक्षित रखने की जरूरत है। मनुष्य के हस्तक्षेप को कम से कम करने और इसके उचित प्रबंधन की आवश्यकता है। यहाँ सब कुछ उपलब्ध है जो किसी भी सर्वोत्तम ग्रह को जीवन के विकास के लिए चाहिए। हमें यह सदा याद रखना चाहिए कि धरती संसाधनों की स्वामिनी है।
धरती सदैव थी और सदैव रहेगी। इसे खोदना या नष्ट करना हमारे लिए कभी भी लाभकारी नहीं हो सकता। धरती की समृद्धि इसे इसके मूल स्वरूप में बनाए रखने में है। जल, जो यहां बहुतायत में है, धरती का मूल आधार है और इसी से सभी वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं।
कृषि वास्तविक समृद्धि है, जबकि कल-कारखाने सिर्फ साधन हैं। कृषि एक साधना है, और इसका ज्ञान एक महान संसाधन है। कृषि पद्धति से जीवन यापन का ज्ञान मनुष्य का सर्वोत्तम ज्ञान है। मिट्टी की उर्वरता, पेड़-पौधे, जीव-जंतु और वनस्पतियों की प्रचुरता कृषि के लिए आवश्यक हैं। धरती की संतानों को अपनी जननी की सेवा करनी चाहिए। मनुष्य को समझना होगा कि उसमें धरती को समृद्ध करने की क्षमता नहीं है।
मानवीय क्रियाकलाप धरती के वातावरण को दूषित करते हैं, इसलिए सावधानीपूर्वक काम करना चाहिए। यह एक कड़वा सत्य है कि मानवीय क्रियाकलापों ने कई जीवों और वनस्पतियों को नष्ट कर दिया है। धरती का स्वभाव जीवन का निर्माण और पोषण करना है। धरती मनुष्य की जीवित रहने की आवश्यकताओं को पूरा करती है, न कि उनकी बेतुकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं की। धरती पर रहने के लिए हमें विवेकपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
जो व्यक्ति पृथ्वी से दूरी बना लेता है, उसके मन में विनाशकारी सोच पनपती है। पृथ्वी हमारे सभी रोगों का इलाज है। – रुसेन कुमार
मनुष्य
मनुष्य धरती की संतान के रूप में अस्तित्व में आता है, जन्म से लेकर मृत्यु तक धरती के साथ गहरा संबंध बनाए रखता है। मनुष्य धरती की कृपा से ही अपने जीवन को पोषित और संपन्न बनाता है। वह धरती पर उपजे अन्न से ही जीवित रहता है। मनुष्य धरती का कर्जदार है, उसके जीवन की हर जरूरत धरती से पूरी होती है। उसे न तो धरती के विरुद्ध सोचना चाहिए और न ही इससे इतर। मनुष्य धरती का सेवक है, स्वामी नहीं। वह धरती का निरंतर दास है और जितनी अधिक सेवा करेगा, उतना ही अधिक आनंदित और समृद्ध होगा।
धरती की सेवा के अलावा किया गया कोई भी कार्य निरर्थक और हानिकारक होगा। जो मनुष्य धरती से दूर होगा, उसकी बुद्धि में विनाशकारी विचार उत्पन्न होंगे। धरती ही हमारी सभी बीमारियों की औषधि है। मेरा मानना है कि मनुष्यों में धरती माता के प्रति प्रेम जगाना शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य है। मनुष्य के अस्तित्व से पहले भी धरती थी। मनुष्य धरती पर केवल एक किरायेदार है, उसका धरती की खनिज संपदा पर कोई अधिकार नहीं है।
यह सिद्ध है और सभी मनिषियों एवं बुद्धिजीवियों का यही उद्गोष है कि जितना अधिक मानव का मन हिंसक और विषाक्त होता जाएगा, वह उतना ही अधिक प्रकृति के खिलाफ आचरण करेगा। हमारे किसी भी कार्य से यदि पृथ्वी या पृथ्वी पर निवास करने वाले जीवों का अहित होता है, तो इससे बड़ी और कोई विडंबना नहीं हो सकती। यदि मानवीय क्रियाओं के कारण पृथ्वी का एक भी इंच इधर से उधर हो जाता है, तो यह एक बड़ी त्रासदी होगी ! मनुष्य का असली स्वभाव पृथ्वी के प्रति ज्ञानी और सेवक का होना चाहिए।
भारत के किसी केंद्रीय कारागार में अगर हजारों कैदियों को आजीवन रखा गया हो, तो क्या उसे समाज की उपमा दी जा सकती है, कदापि नहीं।
समाज
मनुष्य में सभी प्रकार की बुराइयाँ उसके समाजिक होने से उत्पन्न होती हैं। भारतीय समाज को दो वर्गों में विभाजित कर दिया गया है – भेड़ों का समाज और कैदियों का समाज। जो लोग भेड़ों के समाज का हिस्सा नहीं हैं, वे कैदियों के समाज के सदस्य हैं। केवल एकत्र होना ही समाज नहीं होता। भेड़ों को एक स्थान पर रख देने से उन्हें सभ्य समाज का नाम नहीं दिया जा सकता।
अगर भारत के किसी मुख्य कारागार में हजारों कैदियों को आजीवन रखा गया है, तो उसे समाज के रूप में नहीं माना जा सकता। केंद्रीय कारागार में, सभी कैदी अपने दुःख में डूबे हुए हैं, और यदि वे मिलकर कोई अच्छा काम भी कर लें, तब भी उनमें बंधन की भावना बनी रहेगी।
समाज का निर्माण आपसी सहयोग की भावना से होता है। सामूहिकता में ही सभी समस्याओं का समाधान होता है। भारतीयों ने इस महत्वपूर्ण तथ्य को हजारों साल पहले ही समझ लिया था। भारत का सबसे बड़ा पतन संयुक्त परिवारों के विघटन में हुआ है। संयुक्त परिवार भारतीय समाज की एक अनूठी खोज है। इसके संरक्षण में किसी की भी दिलचस्पी नहीं है, न ही इसे कैसे बचाया जाए, इस पर किसी का ध्यान है।
संयुक्त परिवार में एक ही घड़े के पानी से सबकी प्यास बुझ जाती है। आजकल, हर किसी के पास वाटर प्यूरीफायर होने के बावजूद भी प्यास नहीं बुझती। संयुक्त परिवार की भावना के टूटने से ही समाज में बुराइयां पनप रही हैं। आत्मकेंद्रित होने की बढ़ती प्रवृत्ति सामाजिक मनुष्य के लिए और राष्ट्र की प्रगति के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही है।
नीति निर्माताओं को यह सोचना चाहिए कि मनुष्य अपने परिवार के साथ कैसे रहें, ताकि पारिवारिक संबंध मजबूत हों। भारत की समृद्धि के लिए बच्चों और युवाओं को सामाजिक व्यवहार और संबंधों की गहरी समझ विकसित करनी होगी। समाज का विघटन और भौतिक विकास एक साथ चलने से सिर्फ पृथ्वी को ही हानि पहुंचती है। इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि हम समाजिक संरचना और भौतिक प्रगति के बीच संतुलन बनाएं।
हम भारतीयों का मुख्य दायित्व है कि हम अपनी भूमि के संसाधनों और जीव-जंतुओं की रक्षा करें, न कि उनका दोहन करें। – रुसेन कुमार
राष्ट्र – लोकतंत्र
हम भारतीयों का यह प्रधान कर्तव्य है कि हम अपनी भूमि के संसाधनों और जीव-जंतुओं की सुरक्षा करें, न कि उनका शोषण करें। शोषण की मानसिकता अत्यंत भ्रष्ट होती है। एक राष्ट्र की पहचान उसकी भूमि से होती है। हमें अपने मानचित्र पर गर्व है, परंतु हमें अपनी पहाड़ियों पर गर्व नहीं है। एक राष्ट्र की असली सम्पत्ति उसके प्राकृतिक संसाधन होते हैं।
भारत जैसे देश के लिए, अपनी प्राकृतिक संपदा को संरक्षित करना सबसे बड़ी चुनौती है। भारत को औद्योगिक विकास को संतुलित करना होगा। यह संदेह नहीं होना चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट और कृषि भूमि का दुरुपयोग, भारत को एक खाली राष्ट्र में बदल देगा। भारत की समृद्धि का आधार कृषि है, और कृषि उपजाऊ जमीन पर होती है। भारतीयों के लिए कृषि योग्य भूमि उनकी अनंत संपत्ति है।
विश्व में कई ऐसे देश हैं जहां कृषि योग्य भूमि नहीं है और कई राष्ट्र समुद्री जीवों पर निर्भर हैं। भारत का सौभाग्य है कि उसकी भूमि पर अनेक प्रकार के फल, फूल, कंद-मूल, और औषधियाँ उपलब्ध हैं। गंगा, महानदी जैसी नदियाँ भारत की पहचान हैं। भारत को एक सफल राष्ट्र के रूप में उभरने के लिए कृषि की ओर लौटना होगा। कृषि में लोगों की भागीदारी बढ़ाना सरकारों का मुख्य कार्य होना चाहिए। आज भारतीय जनता कृषि से दूर हो रही है क्योंकि कृषि पर दलालों का नियंत्रण है और पूंजीपति इस पर अपनी नजरें गड़ाए हुए हैं।
यदि कृषि के प्रति यही उपेक्षा बनी रही और समय पर इसके प्रति उदार दृष्टिकोण नहीं अपनाया गया, तो भविष्य में भारतीय निवासी पूंजीपतियों के दास बन सकते हैं। मशीन और उर्वरक आधारित कृषि अर्थव्यवस्था ने पहले ही अनेक भारतीयों को गुलामी की ओर धकेल दिया है। एक राष्ट्र के रूप में मनुष्य की समृद्धि केवल कृषि में ही निहित है, क्योंकि मनुष्य भोजन और पानी से ही जीवित रहता है।
औद्योगिक प्रणाली का उद्देश्य केवल मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति होना चाहिए, इसे समृद्धि का प्रमुख स्रोत के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। – रुसेन कुमार
अर्थतंत्र-अर्थव्यवस्था
हम भारतीयों को यह समझना होगा कि हम आधुनिक उपभोक्तावादी अर्थतंत्र के जाल से कैसे बचे रहें। भारत को अपनी मूलभूत अर्थव्यवस्था विकसित करनी चाहिए। वर्तमान में हम उधार की अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं और इसी दिशा में आगे बढ़ने की इच्छा रखते हैं। औद्योगिक व्यवस्था को केवल मानवीय जरूरतों की पूर्ति के लिए होना चाहिए, इसे समृद्धि के मुख्य केंद्र के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। संतुलन की भावना महत्वपूर्ण है। पश्चिमी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार प्रकृति के अत्यधिक शोषण पर है।
भारत को अपनी नई अर्थव्यवस्था का आधार कृषि पर रखना चाहिए। ज्यादा कृषि करें, पृथ्वी का संरक्षण करें, अपने प्राकृतिक संसाधनों की कीमत समझें, पोषण युक्त अनाज उत्पादित करें और पृथ्वी की खुदाई को कम से कम करें। विकास के लिए मनुष्य के मन का उपयोग करने की आवश्यकता है, न कि पृथ्वी के गर्भ को खोदकर उसमें विकास ढूंढने की। मानव विकास का आधार प्रकृति में नहीं, बल्कि उसकी रचनात्मक शक्तियों के उपयोग में है। भारत को बुद्धि और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था अपनानी चाहिए। धन को केंद्र में रखकर देश को समृद्ध बनाने की इच्छा गंभीर और दीर्घकालिक परिणाम लाएगी।
भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को अपनी संस्कृति के अनुरूप विकसित करनी चाहिए। हमें उतने ही पदार्थों का उत्पादन करना चाहिए जितना कि हमारी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए जरूरी हो। मेरी इच्छा हमेशा यही रहेगी कि हम अपनी चीजों को संरक्षित करके समृद्ध बनें, न कि अपनी संपत्ति को बेचकर।
समृद्धि आपसी मेल-जोल, प्रेम और समन्वय से बढ़ती है। प्रत्येक पदार्थ का महत्व उसके सदुपयोग से होता है, न कि सिर्फ उपलब्धता से। नीति निर्माताओं को किसी भी पदार्थ के उत्पादन से पहले यह विचार करना चाहिए कि इससे पर्यावरण पर कचरा न बढ़े।
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