हिंदी दिवस पर यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपनी हिंदी को उसकी बोलियों के साथ जीवंत बनाए रखें, ताकि वह अधिक समृद्ध और सशक्त बन सके।
‘भाषा का बोलियों के समीप होना ‘ – यह केवल एक भाषाई विचार नहीं है, बल्कि समाज, संस्कृति और संचार के लिए आवश्यक मार्गदर्शक सिद्धांत भी है।
रुसेन कुमार द्वारा
भाषा किसी भी समाज और संस्कृति की आत्मा होती है। हमारे देश में विविधताओं से भरी भाषाएँ और बोलियाँ हैं, जिनकी जड़ें हमारी सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ी हुई हैं। हिंदी दिवस पर, यह विचार करना महत्वपूर्ण है कि एक समृद्ध भाषा वही होती है जो जनमानस की बोलियों के करीब हो। मेरा ऐसा विचार है कि हिंदी की सुंदरता और प्रभाव तभी टिकाऊ रह सकता है जब वह अपने लोक की बोलियों से जुड़ी रहे, और उनके स्वाभाविक प्रवाह को आत्मसात करे।
इस लेख में मैं इस दृष्टिकोण को विस्तार से समझाने का प्रयास करूँगा।
हिंदी और बोलियों का संबंध
हिंदी एक महान भाषा है, लेकिन इसकी शक्ति तब और बढ़ जाती है जब यह अपनी विविध बोलियों से घुल-मिल जाती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश जैसे हिंदीभाषी राज्यों में विभिन्न बोलियाँ जैसे अवधी, ब्रज, भोजपुरी, राजस्थानी, और हरियाणवी हिंदी के अंग हैं। जब हम हिंदी को इन बोलियों के समीप रखते हैं, तब वह अधिक समृद्ध, लचीली और व्यापक होती है। बोलियाँ उस क्षेत्रीय समाज का दर्पण होती हैं, उनकी परंपराओं, रीति-रिवाजों और अनुभवों को व्यक्त करती हैं। इसलिए, हिंदी का विकास बोलियों के सम्मिलन के बिना अधूरा है। बोलियों के द्वारा हम अपनी
भावनाएँ सटिकता और गहराई से व्यक्त कर पाते हैं।
भाषा का उद्देश्य – संचार और जुड़ाव
भाषा का मूल उद्देश्य संचार और लोगों के बीच जुड़ाव को बढ़ावा देना है। अगर हिंदी अपनी बोलियों से दूर हो जाती है, तो यह अपने मूल उद्देश्य से भटक जाती है। रुसेन कुमार का विचार है कि एक ऐसी हिंदी जो सरल, स्वाभाविक और बोलचाल की भाषा के करीब हो, वह अधिक प्रभावशाली और प्रभावकारी हो सकती है। जब लोग अपनी बोली में हिंदी को समझते और बोलते हैं, तो वे भाषा को आत्मसात कर पाते हैं। इसी प्रकार हिंदी को जनमानस की भावना की अभिव्यक्ति या आवाज़ बनना चाहिए, न कि केवल एक औपचारिक भाषा।
हिंदी का विकास तभी संभव है जब वह बोलियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। – रुसेन कुमार
हिंदी का विकास बोलियों के साथ
हिंदी का विकास तभी संभव है जब वह बोलियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। जब हम अपनी भाषा को बोलियों के साथ सम्मिश्रित करते हैं, तब वह अधिक जीवंत और संप्रेषणीय होती है। आज के युग में तकनीक और वैश्वीकरण ने भाषाओं को काफी हद तक बदल दिया है, लेकिन अगर हिंदी अपनी जड़ों से, अपनी बोलियों से जुड़ी रहती है, तो वह अपनी प्रासंगिकता और महत्व को बनाए रखेगी। प्रोफेसर गणेश एन. देवय, एक विद्वान और सांस्कृतिक कार्यकर्ता, ने साहित्यिक आलोचना, साहित्यिक इतिहास, दर्शन, शिक्षा, मानवशास्त्र और भाषाविज्ञान के क्षेत्रों में लेखन किया है। प्रो. देवय ने कई बार इस बात पर ज़ोर दिया है कि भाषाओं का विकास उनकी बोलियों और विविधताओं के संरक्षण से होता है।
यह विचार प्रसिद्ध भाषाविद प्रोफेसर गणेश एन. देवय ने भी साझा किया है कि “भाषाओं का विकास उनकी बोलियों और विविधताओं के साथ होता है, न कि उनके शुद्धिकरण के प्रयासों से।”
प्रो. देवय के अनुसार, भारत में भाषाई विविधता की स्थिति गंभीर है। 2011 की जनगणना में 19,569 मातृभाषाओं का दावा किया गया, जिनमें से केवल 1,369 भाषाओं को आधिकारिक रूप से मान्यता दी गई। People’s Linguistic Survey of India (PLSI) के माध्यम से उन्होंने 700 से अधिक भाषाओं का दस्तावेजीकरण किया, लेकिन इनमें से कई भाषाएँ विलुप्त होने की कगार पर हैं। उनके अनुसार, यह वैश्वीकरण और शिक्षा प्रणाली का प्रभाव है, जो केवल कुछ चुनिंदा भाषाओं को बढ़ावा देती है, जबकि छोटी और क्षेत्रीय भाषाएं हाशिए पर चली जाती हैं।
साहित्य, मीडिया और शिक्षा में हिंदी का स्वरूप
साहित्य, मीडिया और शिक्षा में हिंदी के स्वरूप को बोलियों के साथ जोड़ने से समाज का हर वर्ग उसे आसानी से अपना सकता है। जब साहित्य में क्षेत्रीय बोलियों का समावेश होता है, तो वह पाठकों से गहरा संबंध स्थापित करता है। मीडिया में भी हिंदी को अधिक बोलचाल की भाषा के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए, जिससे हर व्यक्ति उससे जुड़ सके। शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें अपनी पाठ्यपुस्तकों में हिंदी के साथ-साथ उसकी बोलियों को महत्व देना चाहिए, ताकि छात्र-छात्राएँ अपनी भाषा से अधिक जुड़ाव महसूस कर सकें।
भविष्य में हिंदी का विकास इस बात पर निर्भर करेगा कि हम उसे कितना अधिक जनमानस की भाषा बना पाते हैं। – रुसेन कुमार
भविष्य की दिशा – हिंदी को जन-जन की भाषा बनाना
भविष्य में हिंदी का विकास इस बात पर निर्भर करेगा कि हम उसे कितना अधिक जनमानस की भाषा बना पाते हैं। यदि हिंदी को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और प्रभावी बनाना है, तो हमें उसे बोलियों के साथ समृद्ध करना होगा। जिस तरह से महात्मा गांधी ने हिंदी को “जनमानस की भाषा” बनाने पर जोर दिया था, आज हमें भी उसी दृष्टिकोण को अपनाना चाहिए। हिंदी तब ही समृद्ध होगी जब वह हर कोने और हर व्यक्ति की आवाज़ बनेगी।
हिंदी भाषा के समीप की बोलियाँ
हिंदी भाषा के समीप कई बोलियाँ हैं जो विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाती हैं। इनमें से कुछ प्रमुख बोलियाँ निम्नलिखित हैं:
- अवधी
- ब्रजभाषा
- बुंदेली
- कन्नौजी
- बघेली
- बिहारी
- भोजपुरी
- मगही
- मैथिली
- हरियाणवी
- राजस्थानी
- मारवाड़ी
- मेवाड़ी
- शेखावटी
- छत्तीसगढ़ी
- गढ़वाली
- कुमाऊँनी
- मराठी हिंदी (कोशल हिंदी)
- पहाड़ी (हिमाचली हिंदी)
- खंडेली
- मालवी
- निमाड़ी
- चंपारनी
- कठियावाड़ी
- सुरजापुरी
- सादरी
ये सभी बोलियाँ हिंदी के बहुत करीब हैं और हिंदी क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों में बोली जाती हैं। इन बोलियों में शब्दों और व्याकरण में मामूली भिन्नताएँ होती हैं, लेकिन ये हिंदी से बहुत मिलती-जुलती हैं और अक्सर आपस में समझी जा सकती हैं।
सभी भाषा प्रेमियों को 14 सितंबर – हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ।
(कापीराइट – रुसेन कुमार)
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