रुसेन कुमार द्वारा
यह विचार हमें बोध कराता है कि किसी भी श्रमिक का सम्मान उसकी मेहनत के उचित मूल्य के तुरंत भुगतान से होता है। समय पर भुगतान न केवल उसकी मेहनत का सम्मान है, बल्कि यह समाज के न्याय, करुणा और नैतिकता की पहचान भी है।
“मजदूर को उसकी मज़दूरी उसका पसीना सूखने से पहले दे दो,” यह कथन, एक गहरे नैतिक और धार्मिक अर्थ को प्रकट करता है। यह केवल एक साधारण हिदायत नहीं है, बल्कि समाज के हर व्यक्ति के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश है, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो श्रम की कीमत चुकाने के जिम्मेदार होते हैं। यह कथन न्याय, करुणा, और मानवता के उच्चतम आदर्शों का प्रतीक है।
यह महान वाक्य पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक परंपरा से लिया गया है। इस कथन का अर्थ यह है कि प्रत्येक नियोक्ता को अपने श्रमिकों को उनका काम समाप्त होते ही उनकी मज़दूरी अदा करनी चाहिए। पैगंबर (स.अ.व.) के इस कथन का यह संकेत है कि किसी भी नियोक्ता के लिए यह जायज़ नहीं है कि वह किसी भी बहाने से अपने श्रमिकों की मज़दूरी में देरी करे। यह नियोक्ता के लिए अन्यायपूर्ण है कि वह किसी निश्चित समय और स्थान पर काम करवाए और फिर पहले से तय की गई मज़दूरी के भुगतान में देरी करे। साथ ही, नियोक्ता के लिए यह भी उचित नहीं है कि वह तय समय सीमा के बाद अतिरिक्त काम कराए, वह भी मज़दूरी में बिना वृद्धि किए।
“मैं क़यामत के दिन तीन लोगों का मुक़ाबिल बन कर उन से झगडूंगा, (उन तीन में से एक) वह शख्स है जिसने किसी को मज़दूरी पर रखा और उससे पूरा-पूरा काम लिया मगर उसको पूरी मज़दूरी नहीं दी।” 📕 इब्ने माजाह : २४४२
मज़दूरों की दुर्दशा
भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में मजदूरों की दुर्दशा है। मजदूरों के साथ अन्याय संबंधि खबरें निरंतर अखबारों में आते रहती हैं। भारत में जहाँ-जहाँ औद्योगिक शहर हैं वहाँ मजदूरों का बुरा हाल है।
अन्याय की स्थिति: श्रमिकों का संघर्ष
समय पर मजदूरों को उनका मेहनताना नहीं मिलना, एक ऐसी समस्या है जो आश्चर्य, भ्रम और आक्रोश की भावनाओं को जन्म देती है। यह कैसे संभव होता है कि श्रमिकों ने कभी-कभी पूरे साल बिना वेतन प्राप्त किए काम करना पड़ता है? नियोक्ताओं द्वारा इतने लंबे समय तक उन्हें बिना किसी धनराशि के निर्माण कार्य में कैसे लगाया जा सकता? क्या उसके पास ऐसा कोई जमीर नहीं है जो उसे यह एहसास दिलाए कि यह गलत है?, महान अपराथ है। क्या वे अल्लाह की शक्तियों में विश्वास नहीं करते?
श्रमिकों पर अन्याय: धार्मिक और कानूनी दृष्टिकोण
समय पर मज़दूरी का भुगतान नहीं करना – इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह एक अन्याय है। यह कहा गया है कि अल्लाह और मज़लूम की दुआ के बीच कोई बाधा नहीं होती। पैगंबर (स.अ.व.) ने कहा है, “मज़लूम की दुआ से बचो, भले ही वह काफ़िर हो, क्योंकि उसके और अल्लाह के बीच कोई पर्दा नहीं होता।” स्पष्ट है कि यह श्रम कानूनों का उल्लंघन है, और इस प्रकार नियम तोड़ने वालों को दंडात्मक कार्रवाई, जिसमें कैद भी शामिल है, का सामना करना चाहिए।
समाधान की आवश्यकता: त्वरित न्याय की प्रक्रिया
मज़दूरी न मिलने की शिकायत को किसी अन्य शिकायत की तरह नहीं निपटाया जा सकता। यह विशिष्ट समस्या है। ऐसी शिकायतों के मामले में, अधिकारियों को संबंधित नियोक्ता से सीधे यह पूछना चाहिए कि क्या उसने वेतन का भुगतान किया है या नहीं। इस उत्तर के आधार पर कार्रवाई तत्काल की जानी चाहिए। वेतन की अदायगी में देरी के लिए किसी भी बहाने या सफाई को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
विदेशी श्रमिकों की कठिनाइयाँ: सामाजिक और मानसिक चुनौतियाँ
कई देशों में काम करने वाले विदेशी श्रमिक विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों का सामना करते हैं, जैसे कार्यस्थल में समस्याएँ, कम वेतन और परिवार से दूर रहने के कारण मानसिक तनाव की भावना। इसके अलावा, उन्हें अपने मामूली वेतन में देरी की समस्या का भी सामना करना पड़ता है। सऊदी अरब से ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं, जहाँ बड़े पैमाने पर भारतीय मजदूर काम करते हैं। मज़दूरी न मिलने की शिकायत को सऊदी अरब जैसे देश में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि वहाँ शासकीय प्रणाली इस्लामी शरीयत पर आधारित है।
समय पर भुगतान का महत्व
मजदूर अपने शारीरिक और मानसिक श्रम से समाज और अर्थव्यवस्था में योगदान करता है। उसकी मेहनत से ही समाज की प्रगति संभव होती है। ऐसे में, उसे उसकी मेहनत का फल समय पर मिलना चाहिए। जब मजदूर अपने पसीने में भीगा होता है, तो उसकी आशा और विश्वास यही होता है कि उसे उसके काम की उचित मजदूरी तुरंत मिल जाएगी। इस हिदायत का अर्थ यह है कि श्रमिक को उसकी मेहनत का मूल्य देने में देरी करना न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि यह उसकी मेहनत और उसके जीवन के प्रति अनादर का प्रतीक भी है।
अन्याय का स्वरूप
मजदूरी में देरी करना किसी भी श्रमिक के लिए एक मानसिक और भावनात्मक आघात के समान है। जब किसी व्यक्ति ने पूरी मेहनत के साथ अपना काम पूरा किया हो, तो उसे तुरंत भुगतान मिलना चाहिए। यह उसकी जरूरतों का सम्मान करना है। मजदूरी को समय पर न देना एक ऐसा अन्याय है जो श्रमिक की आत्मसम्मान और उसकी जीविका दोनों को प्रभावित करता है। यह केवल आर्थिक शोषण नहीं, बल्कि नैतिक शोषण भी है।
धार्मिक और नैतिक दृष्टिकोण
यह कथन केवल सामाजिक या व्यावसायिक आदेश नहीं है, बल्कि इसके पीछे गहरी धार्मिक और नैतिक दृष्टि भी है। इस्लाम, हिन्दू धर्म, और अन्य धर्मों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि श्रमिक को उसके काम का फल तत्काल मिलना चाहिए। धार्मिक दृष्टिकोण से, श्रमिक की दुआ और श्रम की शक्ति को नकारना ईश्वर के आदेशों का उल्लंघन है। अगर हम श्रमिक को उसकी मजदूरी देने में देरी करते हैं, तो हम एक नैतिक अपराध कर रहे होते हैं। यह न केवल श्रमिक के प्रति अन्याय है, बल्कि ईश्वर के सामने भी एक पाप है।
सामाजिक और आर्थिक असर
समय पर मजदूरी न मिलने से श्रमिकों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी प्रभावित होती है। वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाता, और इसका असर उसके परिवार पर भी पड़ता है। यह आर्थिक असमानता और गरीबी को बढ़ावा देता है। यदि हम मजदूरों को उनका हक नहीं देंगे, तो समाज में असंतुलन और अस्थिरता बढ़ेगी।
समाज और सरकार की जिम्मेदारी
समाज और सरकार का दायित्व है कि वह मजदूरों के अधिकारों की सुरक्षा करे। मजदूरों की मजदूरी का समय पर भुगतान सुनिश्चित करने के लिए ठोस कानूनी प्रावधान है, लेकिन उसका पालन कराना आवश्यक है। यह न केवल कानून का पालन है, बल्कि एक नैतिक जिम्मेदारी भी है। किसी भी समाज की प्रगति का माप उसकी श्रमिकों के प्रति सहानुभूति और उनके अधिकारों के सम्मान से होना चाहिए।
(कापीराइट – रुसेन कुमार)