विचार करेंगे कि क्यों एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से श्रेष्ठ या हीन नहीं हो सकता।
एक मनुष्य (व्यक्ति) दूसरे व्यक्ति से श्रेष्ठ नहीं है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से हीन नहीं है। यदि आप एक व्यक्ति दूसरे से श्रेष्ठ है तो एक व्यक्ति दूसरे के समक्ष स्वमेव ही हीन हो जाएगा। क्या इस बात को आप अपने ऊपर लागू करना चाहगें, निःसंहेद नहीं। व्यक्ति सापेक्ष में श्रेष्ठ नहीं है। व्यक्ति सापेक्ष में हीन नहीं है। व्यक्ति स्वयं में अच्छा हो सकता है, लेकिन कोई व्यक्ति मेरे सापेक्ष श्रेष्ठ नहीं हो सकता, लेकिन तुलना करने पर श्रेष्ठ नहीं हो सकता। कोई व्यक्ति स्वयं में बुरा हो सकता है लेकिन उसका अस्तित्व मेरे सापेक्ष बुरा नहीं हो सकता है।
एक ऐसा आलेख जो आपके अब तक की मान्यताओं को चुनौती देगा और नया दृष्टिकोण प्रदान करेगा।
प्रचलित अवधारणा है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से श्रेष्ठ या हीन हो सकता है। यह विचार व्यक्तिगत अनुभवों, सामाजिक दृष्टिकोणों और सांस्कृतिक मान्यताओं से उपजी हुई होती है। मेरे इस विश्लेषण से आपको ज्ञात और स्पष्ट हो जाएगा कि व्यक्तित्व की श्रेष्ठता या हीनता सापेक्षिक नहीं है। व्यक्ति न तो स्वयं में हीन होता है, न ही श्रेष्ठ। हर व्यक्ति स्वयं में जो कुछ भी है वह उसकी अपनी एक विशेषता हो सकती है।
व्यक्ति की सापेक्षता और निरपेक्षता
व्यक्ति का मूल्यांकन अक्सर दूसरों के संदर्भ में किया जाता है। हम प्रायः स्वयं की तुलना दूसरों से करते हैं और इस तुलना के आधार पर अपने बारे में निष्कर्ष निकालते हैं। यदि हम दूसरों से बेहतर प्रदर्शन करते हैं, तो हम स्वयं को श्रेष्ठ मान लेते हैं, और यदि हम दूसरों से पिछड़ जाते हैं, तो हम स्वयं को हीन समझने लगते हैं। किंतु, यह तुलनात्मक दृष्टिकोण मिथ्या है। जैसे एक व्यक्ति को दूसरे से अधिक शिक्षित, सफल, या धनवान माना जाता है, लेकिन यह सापेक्षता का खेल नहीं बल्कि मनुष्य को अपने से हीन बताकर गुलाम बनाने की सुनियोजित सुदीर्घ प्रक्रिया है। यदि हम तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखें तो व्यक्ति श्रेष्ठ और हीन लग सकते हैं, लेकिन गहरे अर्थों में षणयंत्र है। कोई भी व्यक्ति सिर्फ अपनी शारीरिक, मानसिक या सामाजिक विशेषताओं के आधार पर दूसरे से श्रेष्ठ या हीन नहीं हो सकता। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो प्रत्येक मनुष्य का डीएनए अद्वितीय होता है, उसकी मानसिक और शारीरिक संरचना उसे विशिष्ट बनाती है। वह हीन कैसे हो सकता है?
मनुष्य या किसी समुदाय आदि को हीन बताने का सिद्धांत कुटिलतापूर्वक शासन करने, गुलाम बनाने और बलात दबाने के बारे में है न कि कोई विशिष्टता है।
जैविक समानता और विशिष्टता
हर व्यक्ति की जैविक संरचना लगभग समान होती है, लेकिन हर व्यक्ति में कुछ विशिष्ट गुण भी होते हैं। मानव शरीर की संरचना, उसकी कोशिकाएँ, उसका मस्तिष्क सभी मनुष्यों में एक समान होते हैं। फिर भी, उसकी मानसिक और शारीरिक क्षमता में अंतर हो सकता है। यह अंतर किसी को श्रेष्ठ या हीन नहीं बनाता।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी व्यक्ति की निरपेक्षता का समर्थन करता है। प्रत्येक व्यक्ति का आनुवंशिक कूट, मस्तिष्क संरचना और जीवन के अनुभव अद्वितीय होते हैं। यह अद्वितीयता प्रत्येक व्यक्ति को एक विशिष्ट व्यक्तित्व, प्रतिभा और क्षमता प्रदान करती है।
व्यक्ति का मूल्यांकन अक्सर दूसरों के संदर्भ में करना एक तरह की कुरीति, कुप्रथा, विकृति, कुरूपता और अवसाद है।
हीनता और श्रेष्ठता की अवधारणा
श्रेष्ठता और हीनता सापेक्षिक अवधारणाएँ, नहीं बल्कि कुटिल अवधारणाएँ हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुभवों, विचारों और परिस्थितियों के आधार पर जीवन जीता है। जब हम किसी व्यक्ति की तुलना दूसरों से करते हैं, तो हम उसके गुणों को उसके सामाजिक, शैक्षिक या आर्थिक स्थिति से जोड़कर देखते हैं। लेकिन यह तथ्य मिथ्या, भ्रम है, असत्य है।
आप ऐसा मान सकते हैं कि व्यक्ति अपने अंदर की अच्छाई या बुराई का स्वामी होता है, लेकिन ऐसा हो भी यह आवश्यक तो नहीं है। व्यक्ति स्वयं में अच्छा या बुरा हो सकता है, लेकिन किसी अन्य के संदर्भ में उसे अच्छा या बुरा नहीं कहा जा सकता। ऐसा माना गया है कि नैतिकता और अच्छाई का मूल स्रोत व्यक्ति के अंदर है, और उसे बाहरी मान्यताओं या परिस्थितियों से नहीं मापा जा सकता।
समाज और व्यक्ति की पहचान
समाज में व्यक्तियों को उनके पेशे, शिक्षा, सामाजिक स्थिति और आर्थिक क्षमता के आधार पर आंका जाता है, जबकि ऐसा नहीं है। वास्तव में आप पाएँगे कि पेशे, शिक्षा, सामाजिक स्थिति और आर्थिक क्षमता की तुलना ही भ्रमित करने वाला है। वास्तविकता में, व्यक्ति की पहचान उसकी आंतरिक विशेषताओं से होनी चाहिए। हर व्यक्ति का अनुभव, दृष्टिकोण, और जीवन शैली अलग होती है – वह आदर के योग्य है। किसी एक व्यक्ति को दूसरे के समक्ष श्रेष्ठ या हीन ठहराना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।
कोई व्यक्ति दूसरे से श्रेष्ठ नहीं है, और न ही कोई व्यक्ति सापेक्षता में बुरा है। हर व्यक्ति अपने अस्तित्व यात्रा में अद्वितीय है, और उसकी श्रेष्ठता केवल उसकी व्यक्तिगत प्रक्रिया और संघर्षों से जुड़ी है।
श्रेष्ठता का भ्रम
श्रेष्ठता का भाव आत्मसंतुष्टि का एक रूप हो सकता है, लेकिन यह किसी बीमारी या अवसाद का हिस्सा भी हो सकता है। जब कोई व्यक्ति स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानता है, तो यह भाव उसके आत्मविश्वास को बढ़ाता है ऐसा अक्सर कहते हैं, लेकिन यह वास्तविकता पर आधारित नहीं होता, यह भ्रामक भी हो सकता है। आत्ममूल्यांकन और दूसरों से तुलना करना मानव स्वभाव का हिस्सा है, लेकिन यह तुलना निराधार होती है – ऐसी भावना व्यक्तिगत विकास में कुछ ज्यादा योगदान करता होगा, यह संदेहास्पद हो सकता है। कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के समक्ष स्वमेव हीन नहीं हो सकता, क्योंकि श्रेष्ठता और हीनता केवल व्यक्ति की मानसिक स्थिति पर निर्भर करती है।
अच्छाई और बुराई की सापेक्षता
एक व्यक्ति के गुणों को अच्छा या बुरा कहा जा सकता है, परंतु यह मूल्यांकन सापेक्ष होता है। जो एक व्यक्ति के लिए अच्छा है वह दूसरे के लिए बुरा हो सकता है, और जो एक संदर्भ में अच्छा है वह दूसरे संदर्भ में बुरा हो सकता है। अतः, किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के सापेक्ष अच्छा या बुरा कहना तर्कसंगत अनुभव नहीं होता।
तुलना का दुष्परिणाम
दूसरों के साथ अपनी तुलना करने से अनेक नकारात्मक परिणाम उत्पन्न होने की आशंका रहती है। यह ईर्ष्या, असंतोष, हीन भावना और आत्म-सम्मान की कमी को जन्म दे सकता है। यह हमें अपनी वास्तविक क्षमता को पहचानने और विकसित करने से भी वंचित कर सकता है। हमें दूसरों की भावनाओं से पूर्ण रूप से संचालित होने की आवश्यकता नहीं है।
स्वीकृति और आत्म-विकास
अपनी निरपेक्षता को स्वीकार करना आत्म-विकास का प्रथम सोपान है। हमें अपनी शक्तियों और कमजोरियों को समझना चाहिए और अपनी क्षमता को पूर्ण रूप से विकसित करने का प्रयास करना चाहिए। हमें दूसरों की उपलब्धियों से प्रेरणा लेनी चाहिए, परंतु उनकी नकल करने या उनसे ईर्ष्या करने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
वैयक्तिकता का महत्त्व
व्यक्ति की श्रेष्ठता या हीनता को मापने का कोई वैज्ञानिक या दार्शनिक आधार नहीं है। हर व्यक्ति का जीवन उसकी व्यक्तिगत यात्रा है। इस यात्रा में उसने जो कुछ सीखा, अनुभव किया, और जिसने उसे प्रेरित किया, वही उसकी वास्तविक पहचान है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना महत्व है और उसे किसी अन्य व्यक्ति की तुलना में नहीं आंका जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में एक पूर्ण और स्वतंत्र सत्ता है। उसकी अपनी एक विशिष्ट पहचान, चेतना और अस्तित्व है। कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का अंश या प्रतिबिंब नहीं है। अतः एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के संदर्भ में परिभाषित या मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
सामाजिक संदर्भ
सामाजिक स्तर पर, व्यक्ति की अतुलनीयता को स्वीकार करना एक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिए आवश्यक बन सकता है। हमें यह समझना विकसित करनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति समाज का एक महत्वपूर्ण अंग है, और उसकी योगदान को उसकी क्षमता के अनुसार मान्यता और सम्मान मिलने पर स्थिति में सुधार हो सकता है।
मूल संदेश
बुराइयाँ, हीनता, दुर्बलता आदि व्यक्ति को परिभाषित नहीं करते। बुराइयाँ, हीनता, दुर्बलता आदि सब आगंतुक हैं, यह केवल बुरी मान्यताएँ हैं, इसमें सुधार और परिमार्जन किया जा सकता है। हम सभी एक ही मानव परिवार का हिस्सा हैं और हमें एक दूसरे के साथ प्रेम, करुणा और समझ के साथ व्यवहार करना चाहिए। जब हम इस सत्य को आत्मसात करते हैं, तब हम एक अधिक शांतिपूर्ण और समृद्ध विश्व का निर्माण कर सकते हैं।
आत्ममूल्यांकन और आत्मविकास ही असली श्रेष्ठता के मापदंड हैं। व्यक्ति जब अपने आचरण, विचारों, और निर्णयों में सुधार करता है, तो वह स्वयं में श्रेष्ठता प्राप्त करता है। यह श्रेष्ठता किसी दूसरे के साथ तुलना से नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर की यात्रा से आती है।
सापेक्ष तुलना से हमें मुक्ति की आवश्यकता है। हमें इस बात को समझना होगा कि हर व्यक्ति की यात्रा अद्वितीय है, और उसकी श्रेष्ठता बाहरी तुलना पर निर्भर नहीं करती। जीवन की असली चुनौती और सफलता इसी में निहित है कि हम अपने खुद के आचरण को सुधारें और स्वयं में श्रेष्ठ बनने का प्रयास करें, न कि दूसरों से तुलना करें।
(रुसेन कुमार)