बेरोजगारी: प्राकृतिक या कृत्रिम कुनीतिगत समस्या?, रुसेन कुमार विचारोत्तेजक चिंतन
रुसेन कुमार द्वारा
बेरोजगारी आज के समाज में एक गंभीर चुनौती है सबके लिए। बेरोज़गारी एक ऐसा दंश है जो आज के युवाओं को अंदर ही अंदर असहनीय दर्द दे रहा है। यह सवाल उठता है कि क्या यह समस्या प्राकृतिक है, या कृतिम। क्या यह समाज में व्याप्त आर्थिक और राजनीतिक असंतुलन का परिणाम तो नहीं है? यदि हम गहराई से अवलोकन करें, तो बेरोजगारी की जड़ें प्राकृतिक संसाधनों की कमी में नहीं, बल्कि सत्तासीन लोगों की अनैतिकता और उनके द्वारा सृजित आर्थिक असमानताओं में हैं।
सत्तासीन – यह वह वर्ग है, जिसने सत्ता और संसाधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है, और उसकी वजह से समाज के एक बड़े हिस्से को बेरोजगारी का सामना करना पड़ता है।
सत्तासीन की अनैतिकता: समाज की प्रगति में बाधा
बेरोजगारी का मूल कारण नौकरियों की उपलब्धता में कमी नहीं है, बल्कि सत्तासीन वर्ग की कुटिल नीतियाँ और उनका संसाधनों पर एकाधिकार कर लिया जाना है। सत्तासीन वर्ग हमेशा अपने स्वार्थ को प्राथमिकता देता है, और इसी कारण समाज में समान अवसरों का वितरण अभावयुक्त होता है। यह वर्ग अपने फायदे के लिए समाज के बाकी हिस्सों को अंधेरे में रखता है और अनैतिक तरीकों से संसाधनों का विभाजन कर उस पर आधिपत्य प्राप्त कर चुका है। इसके परिणामस्वरूप, योग्य और मेहनती युवाओं को उचित अवसर नहीं मिलते और बेरोजगारी जैसी समस्याएँ पैदा होती हैं। सत्तासीन वर्ग द्वारा युवाओं के अवसरों को छिन लिया गया है।
नौकरियों की कमी नहीं, नीति की कमी
यह बात समझना आवश्यक है कि बेरोजगारी का असल कारण नौकरियों की कमी नहीं है, बल्कि नीतिगत असमानता है। जब नीति में न्याय और समानता होती है, तो हर व्यक्ति को अपनी क्षमता के अनुसार सहज ही अवसर प्राप्त होते हैं। लेकिन जब नीति अनैतिक हो जाती है, तो इसका लाभ सिर्फ कुछ ही लोगों को मिलता है। सत्तासीन लोग इन नीतियों का फायदा उठाते हैं और समाज के बड़े हिस्से को रोजगार के अवसरों से वंचित रखते हैं, यह जानबूझ कर किया जा रहा है। बेरोजगारी की समस्या तब उत्पन्न होती है, जब संसाधनों का असंतुलित वितरण होता है और नीति-निर्माता इसे सही करने के बजाय अपनी सत्ता को बनाए रखने में लगे रहते हैं। ‘सुनीति’ जहां सबके लिए अवसर सुनिश्चित करती है, वहीं ‘कुनीति’ कुछ मुट्ठी भर लोगों के हितों की पूर्ति करती है।
सत्तासीन वर्ग अपनी पूरी रोटी पर हक जताने में इतना मग्न है कि अपनी सत्ता और अहंकार की छांव में, वह समाज के बाकी लोगों के हिस्से का निवाला भी बेरहमी से छीन लेता है। – रुसेन कुमार
संसाधनों का असंतुलित वितरण: बेरोजगारी की जड़
भारत जैसे देश में बेरोजगारी का मुख्य कारण संसाधनों की कमी नहीं है। भारत के पास इतने संसाधन हैं कि वह हर व्यक्ति की आवश्यकता को पूरा कर सकता है। असली समस्या यह है कि इन संसाधनों का वितरण असंतुलित है। सत्तासीन लोग इन संसाधनों पर कब्जा जमाए बैठे हैं, और बाकी समाज को सीमित संसाधनों के साथ संघर्ष करना पड़ता है। यह असमानता ही बेरोजगारी को जन्म देती है। बेरोजगारी का अंत तभी हो सकता है, जब संसाधनों का समान और न्यायपूर्ण वितरण हो।
महाभारत और आधुनिक संघर्ष का संदर्भ
उनकी ‘ बहुत कुछ चाहिए’ की मानसिकता और जनता की मूलभूत आवश्यकताओं के प्रति उदासीनता, एक विस्फोटक स्थिति पैदा कर रही है।
महाभारत का युद्ध हमें एक महत्वपूर्ण सबक सिखाता है। दुर्योधन ने पांडवों को पांच गाँव देने से मना कर दिया था और एक इंच जमीन भी नहीं देने की जिद पर अड़ा था। का अंधापन, यानी सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की अदूरदर्शिता, बेरोज़गारी की समस्या को और बढ़ा रही है। यही परिस्थिति आज के बेरोजगार युवाओं के सामने भी है। सत्तासीन लोग, जो देश के संसाधनों पर अधिकार जमाए हुए हैं, उन्हें युवाओं के रोजगार के अधिकार से वंचित रख रहे हैं। अब समय आ गया है कि युवा महाभारत जैसे बौद्धिक संघर्ष के लिए तैयार हों। उन्हें यह समझना होगा कि अधिकार बिना सघन विमर्श और संघर्ष के नहीं मिलते।
बेरोजगारी का समाधान: संघर्ष और विमर्श
आज की बेरोजगारी की समस्या का समाधान केवल संघर्ष और बौद्धिक विमर्श में निहित है। यह समस्या केवल योग्यताओं, अवसरों या शिक्षा के माध्यम से हल नहीं हो सकती। जब तक सत्तासीन वर्ग सत्ता और संसाधनों पर कब्जा बनाए रखते हैं, तब तक बेरोजगारी का अंत संभव नहीं है। इसलिए युवाओं को अब केवल रोजगार की मांग नहीं करनी चाहिए, बल्कि उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़नी चाहिए। रोजगार का सवाल अब केवल आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा बन गया है। यह संघर्ष एक नई चेतना, एक नए साहस और एक नई नैतिकता का प्रतीक होगा। यह बौद्धिक विमर्श और संघर्ष एक बेहतर और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
सत्ता के विरुद्ध संघर्ष: युवाओं का हक
बेरोजगारी का असली समाधान तब आएगा, जब युवा सत्तासीन लोगों के विरुद्ध बौद्धिक विमर्श छेड़ेंगे और अपनी आवाज को दोरदार ढंग से बुलंद करेंगे – लोकतांत्रिक विधि और मर्यादा के अनुकूल। सत्तासीन वर्ग वे लोग हैं जो संसाधनों का अधिग्रहण करके बैठे हैं और समाज के बाकी हिस्सों को अवसरों से वंचित कर रहे हैं। यह उचित समय है कि युवा सिर्फ रोजगार मांगने के बजाय अपने हिस्से का हक छीनने की सोचें। यह हक केवल संघर्ष और राजनीतिक विमर्श से ही पाया जा सकता है। यह संघर्ष सत्ता के कुनीतियों के विरुद्ध, अन्याय के विरुद्ध, और असमानता के विरुद्ध होगा।
रोजगार की मांग नहीं, हक की लड़ाई
युवा अब यह समझें कि रोजगार की मांग करके कुछ हासिल नहीं होगा। रोजगार अब एक अधिकार नहीं, बल्कि संघर्ष का हिस्सा है। उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ना होगा और सत्ता में बैठे सत्तासीन लोगों से अपने हिस्से का हक छीनना होगा। जब तक यह संघर्ष नहीं होगा, तब तक बेरोजगारी का समाधान संभव नहीं है।
बेरोजगारी और व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता
बेरोजगारी केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं है, यह पूरे समाज की संरचना और व्यवस्था का मुद्दा है। जब तक समाज में नीति-संरचनाएँ बदलकर युवाओं को समान अवसर प्रदान नहीं किए जाते, तब तक बेरोजगारी का अंत नहीं हो सकता। इसके लिए ज़रूरी है कि व्यवस्था में सुधार हो, ताकि सभी को समान अवसर मिल सकें।
संघर्ष और अधिकार की लड़ाई अब केवल रोजगार के लिए नहीं है, बल्कि एक नई व्यवस्था की स्थापना के लिए भी है। एक ऐसी परिपक्व व्यवस्था जहाँ हर व्यक्ति को उसके हिस्से का अवसर और सम्मान मिल सके। बेरोजगारी का समाधान संघर्ष, बौद्धिक विमर्श और व्यवस्था में व्यापक सुधार से ही संभव है।
बेरोज़गारी एक गंभीर समस्या है, लेकिन यह अजेय नहीं है। भारत जैसे संसाधन संपन्न देश में, हर व्यक्ति की ज़रूरतें पूरी करने की क्षमता है, लेकिन संसाधनों का असंतुलित वितरण ही बेरोज़गारी की जड़ है। – रुसेन कुमार
कापीराइट – रुसेन कुमार