इस लेख के माध्यम से रुसेन कुमार रांगेय राघव की अनमोल कृति ‘मेरी भव बाधा हरो‘ को गहरे पढ़ते हुए श्रृंगाररस के रीतिकालीन शिखर कवि बिहारीलाल के जीवन के अनछुए पहलुओं को बड़े ही रोचक ढंग से उजागर कर रहे हैं।
रुसेन कुमार का मानना है – वास्तव में हम किताबों को नहीं चुनते, बल्कि किताबें हमें चुनती हैं। हमारे लिए क्या भला है और क्या बुरा – यह बात केवल किताबें ही जानती हैं।
रुसेन कुमार द्वारा
रायपुर में मेरा सबसे प्रिय स्थान है – पारख बुक डिपो। बहुत पुरानी किताब की दुकान जो जयस्तंभ चौक के पास है। कुछ ही वर्ष पहले वहाँ बस अड्डा हुआ करता था। यह स्थान रायपुर का हृदय स्थल हुआ करता था। शहरी विकास की भूख ने बस अड्डे के सौन्दर्य को लील लिया। यह स्थान पहले कितना खुला-खुला था। इस सुंदर खुले स्थान को गली-कूचों में बदल कर उसे मलिन बना दिया गया है। एक ऊँची इमारत बनने पर बड़ा दोष यह उत्पन्न होता है कि उसकी आसपास के सभी घरौंदे बौने नजर आते हैं। इसलिए मुझे ऊँची इमारतों को देखकर कोई आकर्षण नहीं आता। ऊँची चीजें समाज में दोष ही बढ़ाती हैं। अगर हम कहीं खड़े हैं और वहाँ से आसमान का दिखना बंद हो जाए तो समझना चाहिए कि हमने अपने सर्वनाश का प्रबंध कर लिया है। हमें भवनों को इस तरह से विकसित करना चाहिए कि हमें अधिकाधिक आकाश दिखना चाहिए।
ज्ञान के महासागर के किनारे
किताबों की दुकानों पर केवल इसलिए ही नहीं जाता कि मुझे कोई किताब खरीदनी है, बल्कि इसलिए जाता हूँ क्योंकि मुझे किताबें प्रिय हैं। मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि किताबें मुझे आखिर में प्रिय क्यों लगती हैं। किताबों का प्रिय लगना कोई मानसिक दोष तो नहीं है? असंख्य किताबों को देखकर बड़ा अच्छा लगता है। किसी लाइब्रेरी में जाकर या किताब की दुकान में जाकर मुझे यह अनुभव गहराता है कि ज्ञान के महासागर के किनारे पर खड़ा हूँ। किताबों की किसी दुकान पर जाकर ही पता चलता है कि हम कितने अल्पज्ञ हैं। हमारी बुद्धि में कितना कुछ अभाव है। हमारे मन और बुद्धि को अभी बहुत पोषकतत्वों की आवश्यकता है।
किताबें हमें चुनती हैं
पहले से यह तय करके नहीं रखता हूँ कि मुझे कौन-सी किताब चाहिए। किताब की दुकान पर जाकर स्वयं को किताबों के बीच खड़ा कर देता हूँ, खुला छोड़ देता हूँ, वैसे ही जैसे हम किसी चौक-चौराहे पर स्वयं को पाकर अनुभव करते हैं। छू-छूकर देखता हूँ किताबों को, पलटकर देखता हूँ और फिर रख देता हूँ। किताबों के प्रति यह व्यवहार खराब है या अच्छा, मुझे इसके बारे में बिल्कुल ही नहीं मालूम। वास्तव में हम किताबों को नहीं चुनते, बल्कि किताबें हमें चुनती हैं। हमारे लिए क्या भला है और क्या बुरा – यह बात केवल किताबें ही जानती हैं। किताबें हमारी वृत्तियों को अच्छी तरह जानती हैं। हमारी वृत्ति के अनुसार ही किताब हमें यह आदेशित करती है – मुझे उठाओ, मुझे पढ़ो, मुझे समझो, मुझे जानो। किताबें जीवित देवता हैं। किताबों के शब्द जिंदा होते हैं। शब्द जीवित रहते हैं अनंतकाल तक। शब्द अक्षर हैं। महान विचार कभी मरते नहीं, अर्थात अमर होते हैं।
किताब हमें यह आदेशित करती है – मुझे उठाओ, मुझे पढ़ो, मुझे समझो, मुझे जानो। – रुसेन कुमार
भारती का सपूत
बीते सितंबर (2021) को रायपुर आया तो पुनः जा पहुँचा पारख बुक डिपो। पहुँच कर मैंने रांगेय राघव की सभी किताबों की सूची माँगी जो वहाँ उपलब्ध हों। वास्तव में, मुझे रांगेय राघव का उपन्यास – ‘भारती का सपूत‘ चाहिए था। यह उपन्यास भारतेन्दु हरिश्चंद्र के जीवन पर आधारित है। इस किताब को मुझे एक आदरणीय साहित्य मनीषि को भेंट करनी थी। वैसे तो भारती का सपूत मेरी गृह-पुस्तकालय में उपलब्ध है, लेकिन मुझे उपहार में देने के लिए नई प्रति की आवश्यकता थी। कुछ ही क्षणों में मेरे समक्ष रांगेय राघव कृत कुछ महान उपन्यास थीं, लेकिन भारती का सपूत नहीं था। मुझे प्रिय किताब नहीं मिलने पर अल्प निराशा हुई, लेकिन और भी शानदार किताबें एक साथ अनायास ही मिल जाने पर अत्यंत हार्दिक प्रसन्नता हुई। ‘भारती का सपूत’ में हिंदी के महान उपन्यासकार रांगेय राघव ने भारतेन्दु हरिश्चंद्र के जीवन को अत्यंत मार्मिक और जीवंतता के साथ प्रस्तुत किया है।
उपन्यास एक महान पेंटिंग है
पढ़ते समय मुझे तो यह उपन्यास एक महान पेंटिंग के समतुल्य अनुभूत हुआ। किसी उत्कृष्ट पेंटिंग में चित्रकार न जाने कितने प्रकार के रंगों के मिश्रण से रंगों का उत्सव रचता है। सौन्दर्य का बोध तो केवल उन्हीं को होता है, जिनके अंतस में सौन्दर्य बोध होता है। महान उपन्यासकार रांगेय राघव ने इस कालजयी उपन्यास में भारतेन्दु हरिश्चंद्र के जीवन को किसी फिल्म की भांति प्रस्तुत किया है। मेरे विचार से यह एक अप्रतीम रचना है, जिसे प्रत्येक हिंदी प्रेमी को एक बार तो अवश्य ही पढ़ लेना चाहिए। भारत के स्वतंत्रता काल के दौरान हिंदी में अनेक महानतम रचनाओं का सृजन हुआ है। यह रचना भी उसी कालखंड की है।
रांगेय राघव को जीवन आधारित उपन्यास लिखने में विशेषज्ञता और दक्षता प्राप्त थी। अगर विश्वास न हो तो इन उपन्यासों के शीर्षक पर दृष्टि डालिए- मेरी भव बाधा हरो – कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित उपन्यास, रत्ना की बात – संत महाकवि तुलसीदास जी के जीवन पर आधारित उपन्यास, लोई का ताना – कबीरदास जी के जीवन पर आधारित उपन्यास, लखिमा की आंखें – कवि विद्यापति के जीवन पर आधारित उपन्यास, देवकी का बेटा – श्री कृष्ण के जीवन पर आधारित उपन्यास, भारती का सपूत – भारतेंदु हरिश्चंद्र के जीवन पर आधारित उपन्यास, यशोधरा जीत गई – गौतम बुद्ध के जीवन पर केंद्रित उपन्यास।
रांगेय राघव कृत – मेरी भव बाधा हरो
कवि बिहारीलाल के जीवन पर दुर्लभ उपन्यास
इन सातों उपन्यास में दो रचनाएँ बहुत ही अनोखी हैं। ये उपन्यास जिन दिव्य साहित्यिक विभूतियों के जीवन पर केंद्रित उनके जीवन के बारे में जनमानस में बहुत कम ही जागरूकता है। ये हैं कवि बिहारीलाल और कवि विद्यापति। इन दो साहित्य मनीषियों के जीवन के बारे में उपन्यास लिखकर डा. रांगेय राघव ने हम भारतीयों पर बड़ा उपकार किया है। पढ़कर मुझे अनुभव हुआ कि कवि होना एक संयोगजन्य अलौकिक घटना है। कवि होने की एक पूरी प्रक्रिया होती है।
सभ्य समाज के लोगों को अपने निज साहित्य को पढ़ना कितना आवश्यक है, यह बात रांगेय राघव ने बड़े ही मन से कहा है। रूस के जनसाहित्यकार मैक्सिम गोर्की की रचनाओं को हिंदी में अनुवाद करते समय रांगेय राघव ने कहा – “जो पढ़ना जानकर गोर्की को नहीं पढ़ता, वह मनुष्य की प्रगति को पहचानने से इनकार करता है।’ किसी महान रचनाकार के साहित्य को पढ़ने के महत्व के बारे में रांगेय राघव की इस रहस्यमी बात को थोड़ा आगे बढ़ाकर यह कहा जाय कि भारतीयों ने अगर रांगेय राघव के साहित्य नहीं पढ़ा तो उसके लिए एक महान दुर्भाग्य की बात है। वास्तव में, रांगेय राघव के साहित्य हमारी भाव-भावना को अधिक समृद्ध करते हैं और महान भारत के सुपुत्रों के जीवन और सद्चरित्रों को सजीव बनाते हैं।
रांगेय राघव ने विपरीत राजनीतिक समय में साहित्य साधना की। उनके लेखन काल में पूरे देश में आजादी के लिए संघर्ष जारी था। उनकी रचनाओं में पत्रकारिता, रिपोर्ट, विचार, आदर्श, यथार्थ के समीप कल्पना, प्रगतिशीलता, प्रमाण, तथ्य, संदर्भ आदि का भरपूर समन्वय मिलता है। रांगेय राघव का हमारे ऊपर उपकार देखिए – उन्होंने 39 वर्षों के जीवनकाल में 150 कृतियों की रचना की, जो हिन्दी साहित्य के अमूल्य रत्न हैं। हिन्दी उपन्यास का प्रारंभ काल 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध को माना गया।
हिन्दी में उपन्यास विधा के आधार स्तंभ हैं – रांगेय राघव। उन्होंने रूसी और अंग्रेजी साहित्यों का हिन्दी में अनुवाद करके दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य को हमारे लिए पढ़ने योग्य बनाया। उपन्यास का मुख्य कार्य है घटनाओं अथवा पात्रों को निकट लाकर उसकी समीपता की अनुभूति कराना। घटनाओं को शब्दों के सहारे चित्रित करना महान योग्यता होती है। मुगलकालीन कविवरों के जीवन पर कुछ लिख पाना दुष्कर कार्य माना गया, क्योंकि उनके जीवन के बारे में लिखित सामग्री अधिक मात्रा उपलब्ध नहीं रहती थीं। रांगेय राघव ने कविवर बिहारीलाल के जीवन पर रोचक उपन्यास “मेरी भव बाधा हरो’’ लिखने के लिए कितना अधिक श्रम किया होगा, इसकी कल्पना करना बहुत सुखद लगता है और यह हमारे लेखन के लिए महान प्रेरणा का आधार भी है। रांगेय राघव अत्यंत मेहनती रचनाकार हुए हैं। जब भी हम रांगेय राघव की रचनाओं को पढ़ते हैं तो हम एक साथ कई बातों को पढ़ते और जानते-समझते हैं। रांगेय राघव एक सम्पूर्ण लेखक हैं। मेरे हृदय में उनके लिए विशेष आदर है।
कविहृदय पिता से विरासत में मिला
इस लेख के अंतिम भाग में “मेरी भव बाधा हरो’’ उपन्यास पर ध्यान केंद्रित कर रहा हूँ। इस उपन्यास को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि कविवर बिहारीलाल को कवित्व अपने कविहृदय पिता से विरासत में मिला था। बिहारीलाल जैसी काव्य प्रतिभा अत्यंत दुर्लभ है। मेरे दृष्टिकोण से कवि बिहारीलाल के जीवन के अंतरंग पहलुओं को उजागर करने वाले रांगेय राघव हिंदी की आकाश गंगा के सूर्य हैं।
आज हम बिहारीलाल सतसई के रचनाकार जिस कवि को श्रृंगार के शिखर कवि के रूप में जानते हैं, उनका जीवन अत्यंत सुखमय और राजसी ठाठ से बीता। इस कवि को कम शब्दों में अधिक अर्थ देने वाली बातों को कहने की महान प्रतिभा थी। उनका समय मुगल बादशाह जहाँगीर तथा खास तौर पर उनके बाद हुए शाहजहाँ का राज्यकाल है, जिनके दरबार में रहे। इस उपन्यास को पढ़कर ज्ञात होता है कि अब्दुर्रहीम खानखाना, कवि पंडितराज जगन्नाथ दूलर, कवि सुन्दर उनके समय के थे। प्रसिद्ध कवि केशवदास उनके पहले हुए। बिहारीलाल के पिता केशवराय महाकवि केशवदास के घनिष्ट सम्बन्ध रखते थे। बचपन में केवशदास का सानिध्य बिहारीलाल को मिला। केवशदास ने बालक बिहारीलाल को प्रिय पुत्र स्वीकार किया था। बिहारी बचपन में ही कवि केशवदास के शिष्य बन गए थे। कवि केशवदास का जिस समय देहावसान हुआ, उस समय बिहारीलाल 12 वर्ष के थे।
स्वामी नरहरिदास का गहन सानिध्य
कवि बिहारी को स्वामी नरहरिदास का गहन सानिध्य मिला। नरहरिदास के समीप ही रहकर ही रचना सुनाया करते थे। राजाओं के विशेष कृपापात्र थे, इस कारण उनके पास धनसंपदा की कमी नहीं थी। इस कवि ने अपार वैभव का सुख लिया। ब्राह्मण कुल में जन्मे कवि बिहारीलाल के कालखण्ड को रीतिकाल कहा गया है। उनका जन्म 1595 और निधन 1673 में हुआ। रांगेय राघव कला, संस्कृति, काव्य के कितने बड़े प्रवक्ता थे, उपन्यासकार एक पात्र के माध्यम से कहते हैं, “आचार्य! संगीत और काव्य लोक के लिए नहीं, मर्मज्ञों के लिए होते हैं। लोक गाता है, अपने गीत स्वयं रचता है। किन्तु उनका सूक्ष्म सौन्दर्य केवल रसज्ञ ही जान सकते हैं।’’
आगे लिखते हैं, “आचार्य! काव्य और संगीत मनुष्य की उस अवस्था के द्योतक है, जो साधारण के लिए नहीं है। साधारीकरण में भी सब एक-से नहीं समझते।’’
कविवर की साहित्यिक रुचि बचपन से ही थी। बचपन में ही विलक्षण प्रतिभा का प्रदर्शन करके रचना करने लगे थे। बिहारीलाल के पिता को एक दिन वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे सन्यासी होकर गृह त्याग करके कहीं अदृश्य हो गए, और फिर कभी घर नहीं लौटे। विलीन होने के पूर्व पिता केवशराय ने स्वामी नरहरिदास को अशर्फियाँ देते हुए कुछ इस तरह कहा, “वह आएगा। यह दे दें उसे। आज मैं स्वतंत्र हुआ। अब बिहारी की मुझे चिंता नहीं रही। बुद्धिमान अपना मार्ग स्वयं खोज लेता है।’’
हिन्दी के रीति युग के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि की कृति ‘‘बिहारीलाल सतसई’’ है। सतसई का मुख्य छंद दोहा है। बीच-बीच में कुछ सोरठे भी मिल जाते है। केवल एक छोटी-सी रचना के आधार पर जो यश बिहारीलाल को मिला वह साहित्य जगत के इस तथ्य का उद्घोष करता है कि किसी कवि का यश उनकी रचनाओं में उपस्थित गुण के हिसाब से होता है। कवि बिहारीलाल का बहुत समय मथुरा में बीता।
यदुराई? कविराई को ले चले
वैसे तो कवि बिहारीलाल के जीवन में इतने रोचक प्रसंग हैं कि जिनके बारे में लिखा जाय तो कई पन्ने लग जाएँगे। बिहारीलाल के जीवन का अंतिम समय कैसा रहा, उसके सम्पूर्ण जीवन के सार को रांगेय राघव इस उपन्यास के अंत में कुछ इस तरह लिखते हैं – महाराज ने कहा, “यदुराई? कविराई को ले चले।’’ बिहारी उतरने लगा। महलों में हल्ला मच गया। खबर बिजली की तरह दौड़ चली। महाकवि वैराग्य लेकर जा रहे हैं। आमेर के जैन साधु भी यह देखने को बाहर आ गए। एक बार मुड़कर देखा बिहारी ने। सबको हाथ जोड़े। भागा आया निरंजन कृष्ण (उनका गोद लिया हुआ पुत्र)। पुकार उठा, “दद्दा!” बिहारी हंसा। कहा, “बहुत पापी हूँ बेटा, बहुत पापी हूँ। अब जाने दे।’’ निरंजन रोने लगा। बिहारी नहीं रुका। उसने सिर झुकाया सब देखते रहे। और वह सब छोड़कर बाहर चला आया। प्रजाजन देखते रहे। कोई व्यक्ति इतने वैभव को छोड़कर भी जा सकता है। रानियाँ रो पड़ीं। महाराज देखते रहे। बिहारी आज मस्त-सा चला जा रहा था पैदल। बूढ़ा किताना मुक्त था। उसे गोपाल बुला रहे थे।
( कापीराइट- रुसेन कुमार)
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