रुसेन कुमार का मानना है कि एक विविधता संपन्न देश के लिए वर्तमान में प्रचलित बहु-चुनाव प्रणाली अधिक कारगर और प्रभावी है। यह प्रणाली न केवल देश की विविध आवश्यकताओं और स्थानीय मुद्दों को उचित प्राथमिकता देती है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी मजबूत बनाती है।
लोकतंत्र के शारीरिक ढांचे और प्राण का पोषण स्वतंत्र चुनाव प्रणाली द्वारा ही होता है।
‘एक देश एक चुनाव’ के प्रस्ताव को केंद्रीय कैबिनेट से मंजूरी मिल गई है। शीतकालीन सत्र में एनडीए सरकार द्वारा इस संबंध में बिल संसद में लाने का प्रस्ताव है। ‘एक देश एक चुनाव’ का मुद्दा देश में चर्चा का विषय बना हुआ है।
रुसेन कुमार द्वारा
‘एक देश, एक चुनाव’ (One Nation, One Election) की अवधारणा सतही तौर पर देखने में बहुत आकर्षक और आर्थिक रूप से लाभकारी प्रतीत होती है। इसके समर्थक दावा करते हैं कि यह देश के संसाधनों का बेहतर उपयोग करेगा और बार-बार चुनावों के कारण उत्पन्न अव्यवस्था से मुक्ति दिलाएगा। लेकिन यह विचार जितना सरल और उचित दिखता है, उतना ही जटिल और गंभीर इसके संभावित दुष्परिणाम हैं।
यह लेख इस प्रस्ताव के दूरगामी प्रभावों पर गहराई से चर्चा करूँगा और यह समझाने का प्रयास करूँगा कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए कितना हानिकारक साबित हो सकता है।
मेरी आशंकाओं को पहले कुछ बिंदुओं में व्यक्त कर रहा हूँः
- ‘एक देश एक चुनाव’ की अवधारणा से चुनाव कराने या चुनाव होने के पीछे का जो उच्चतम आदर्श उद्देश्य होता है वह कम या ज्यादा स्वरूप में क्षीण या पूरी तरह से समाप्त हो सकता है।
- संविधान में केंद्र और राज्यों की भूमिकाएँ स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं, और दोनों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं। इसलिए ‘एक देश, एक चुनाव’ (One Nation, One Election) की अवधारणा भ्रामक और अवचित्यहीन प्रतीत होती है।
- ‘एक देश एक चुनाव’ से राज्य की स्वायत्तता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और राज्यों की निर्णय लेने की क्षमता बुरी तरह कमजोर हो जाएगी।
लोकतांत्रिक विविधता पर असर
भारत जैसा विविधतापूर्ण देश, जिसमें विभिन्न राज्यों की अपनी विशिष्टताएं, संस्कृति, और राजनैतिक मुद्दे होते हैं, एक साथ चुनाव की प्रक्रिया में अपनी अनूठी पहचान खो सकता है। राज्य चुनावों की अलग-अलग समय पर होने वाली प्रक्रिया का मुख्य लाभ यह है कि इससे क्षेत्रीय मुद्दों और जरूरतों पर ध्यान केंद्रित होता है। अगर सभी चुनाव एक साथ कराए जाते हैं, तो क्षेत्रीय समस्याओं और जरूरतों की ओर से ध्यान भटक सकता है, क्योंकि राष्ट्रीय चुनाव का असर लोकल चुनावों पर भारी पड़ेगा। इससे यह संभावना बढ़ जाएगी कि स्थानीय चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो जाएँ, और क्षेत्रीय सरकारें अपने असल कामों से जनता का विश्वास हासिल करने के बजाय केवल राष्ट्रीय पार्टियों के प्रभाव में आ जाएँ।
चुनावी स्वतंत्रता का मसला
चुनाव भारतीय लोकतंत्र की जड़ है, और बार-बार चुनावों का होना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक स्वाभाविक हिस्सा है। बार-बार चुनाव जनता को अपने विचार बदलने, पुनर्चिंतन करने, नई उन्नत सरकारें चुनने और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए वोट करने का अवसर उपलब्ध कराता है। ‘एक देश, एक चुनाव’ में यह लोकतांत्रिक स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है। अगर हर पाँच वर्षों में ही चुनाव होते हैं, तो सरकारों पर कम दबाव होगा कि वे जनता की अपेक्षाओं को तत्काल पूरा करें। इससे जनता की भागीदारी कम हो सकती है और लोकतंत्र का सार कमजोर हो सकता है। चुनाव प्रक्रिया रूढ़ और कठोर हो सकती है। एक देश एक चुनाव लागू होने की स्थिति में यह एक सख्त प्रक्रिया मात्र बन कर रह जाएगी।
लोकल और राष्ट्रीय मुद्दों का मिश्रण
‘एक देश एक चुनाव’ का एक बड़ा नकारात्मक पक्ष यह है कि राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दों का अंतर समाप्त हो सकता है। यदि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाते हैं, तो एक ही पार्टी का वर्चस्व पूरे देश में हो सकता है। इससे राज्य सरकारों की स्वतंत्रता कम हो सकती है, क्योंकि क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों के साये में दब सकते हैं। इसका परिणाम यह होगा कि क्षेत्रीय मुद्दों की अनदेखी हो जाएगी, क्योंकि चुनावी माहौल में जनता की प्राथमिकताएँ बदल सकती हैं। इससे सरकारें वास्तविक मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय केवल सत्ता हासिल करने की कोशिश करेंगी।
क्षेत्रीय पार्टियों की समाप्ति
क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व और उनका महत्व भारतीय लोकतंत्र की पहचान है। क्षेत्रीय दल जनता की आवाज बनते हैं और उनके मुद्दों को सही मंच पर उठाते हैं। ‘एक देश, एक चुनाव’ की अवधारणा के लागू होने से क्षेत्रीय दल कमजोर हो सकते हैं, क्योंकि बड़े राष्ट्रीय दलों का प्रभाव अधिक हो सकता है, उनके पास अधिक संसाधन हैं। इससे लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा न केवल घट सकती है, बल्कि नष्ट भी हो सकती है। क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व पूरी तरह संकट में पड़ जाने का संदेह और खतरा बना रहेगा है। इसका परिणाम यह होगा कि जनता के कुछ वर्गों की आवाज दब सकती है और वे अपनी समस्याओं का समाधान नहीं प्राप्त कर पाएंगे और इससे जनता के मन में असंतोष और कुंठा प्राप्त हो सकती है।
प्रशासनिक अस्थिरता
भारत जैसे विशाल और विविध देश में चुनाव एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें प्रशासनिक ढांचे को कई बार पुनर्गठित और संयोजित करना पड़ता है। ‘एक देश, एक चुनाव’ की अवधारणा प्रशासनिक दृष्टिकोण से चुनौतीपूर्ण हो सकती है। चुनावों के आयोजन में सुरक्षा, संसाधनों की उपलब्धता, और कर्मचारियों की तैनाती की आवश्यकताएं बढ़ जाती हैं। अगर पूरे देश में एक साथ चुनाव कराए जाते हैं, तो प्रशासनिक मशीनरी पर भारी दबाव पड़ेगा और चुनाव कराने में गड़बड़ियां हो सकती हैं, इस दबाव में प्रशासनिक व्यवस्था ज्यादा उग्र, असंवेदशील हो सकती है। परिणाम स्वरूप जनता का चुनावी प्रक्रिया पर विश्वास भी कम हो सकता है, जो लोकतंत्र के लिए हानिकारक है।
‘एक देश एक चुनाव’ की अवधारणा दिखने में बहुत आकर्षक है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर और हानिकारक हो सकते हैं। – रुसेन कुमार
वास्तविक मुद्दों की अवहेलना
अगर राष्ट्रीय (आम चुनाव) और राज्य के चुनाव एक साथ कराए जाते हैं, तो मतदाताओं का ध्यान प्रमुख रूप से राष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित हो सकता है। इसका परिणाम यह होगा कि स्थानीय मुद्दों की अनदेखी होगी। राज्य सरकारें क्षेत्रीय समस्याओं को हल करने में सक्षम नहीं होंगी क्योंकि जनता के सामने राष्ट्रीय मुद्दे अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं। इससे राज्यों में विकास कार्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है और राज्य सरकारों की स्वायत्तता पर भी असर पड़ सकता है।
राष्ट्रीय बनाम क्षेत्रीय मुद्दे
जब राष्ट्रीय और राज्य चुनाव एक साथ होते हैं, तो मतदाता अक्सर बड़े, देशव्यापी मुद्दों पर अधिक ध्यान देते हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, विदेश नीति जैसे विषय आम चुनावों में केंद्रीय बिंदु होते हैं। इन मुद्दों की तुलना में, राज्य सरकारों के कामकाज, स्थानीय समस्याएँ जैसे पानी, बिजली, सड़कें, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवाएं अक्सर उतनी प्राथमिकता में नहीं आ पातीं। इस वजह से, राज्य चुनावों में भी मतदाता उसी मानसिकता से वोट कर सकते हैं, जैसे वे आम चुनावों में करते हैं, और इससे स्थानीय मुद्दों की अनदेखी हो सकती है।
स्थानीय समस्याओं का समाधान बाधित होना
राज्यों की अलग-अलग समस्याएँ होती हैं, जो उनके सामाजिक, आर्थिक, और भौगोलिक संदर्भों पर निर्भर करती हैं। जब राज्य चुनाव स्वतंत्र रूप से होते हैं, तो राजनीतिक दल और उम्मीदवार स्थानीय समस्याओं पर केंद्रित होते हैं और उनके समाधान का वादा करते हैं। परंतु यदि चुनाव एक साथ होते हैं, तो राष्ट्रीय दल प्रमुखता प्राप्त कर सकते हैं और राज्य सरकारों के ऊपर उनके एजेंडा का दबाव बन सकता है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि राज्य सरकारें अपने क्षेत्रीय कार्यों को ठीक से नहीं कर पाएंगी, क्योंकि उनकी प्राथमिकताएँ राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित होंगी।
भारतीय लोकतंत्र की ताकत उसकी विविधता और स्वतंत्रता में है, और ‘एक देश एक चुनाव’’ इस मूल सिद्धांत को कमजोर कर सकता है, लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध हो सकता है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में केवल वित्तीय बचत को सर्वोपरि रखना लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ है।
विकास कार्यों पर प्रभाव
राज्य सरकारें स्थानीय विकास कार्यों को बढ़ावा देने और उनके निष्पादन में स्वतंत्र भूमिका निभाती हैं। लेकिन अगर ‘एक देश, एक चुनाव’ जैसी प्रणाली लागू होती है, तो राज्य सरकारों के विकास कार्यों पर केंद्र सरकार की नीतियों का प्रभाव अधिक हो सकता है। राज्य सरकारों को अपने क्षेत्र की समस्याओं को प्राथमिकता देकर विकास योजनाएँ बनानी चाहिए, लेकिन यदि राष्ट्रीय चुनाव के साथ यह प्रक्रिया हो रही हो, तो राष्ट्रीय पार्टियों के एजेंडे के कारण इन योजनाओं की प्राथमिकता कम हो सकती है। इसका परिणाम यह होगा कि राज्य स्तर पर विकास कार्यों में देरी होगी और कई आवश्यक योजनाएं सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दों के दबाव में आकर उपेक्षित रह सकती हैं।
विकास कार्यों पर प्रभाव
राज्य सरकारें स्थानीय विकास कार्यों को बढ़ावा देने और उनके निष्पादन में स्वतंत्र भूमिका निभाती हैं। लेकिन अगर ‘एक देश एक चुनाव’ जैसी अव्यवहारिक प्रणाली लागू होती है, तो राज्य सरकारों के विकास कार्यों पर केंद्र सरकार की नीतियों का प्रभाव अधिक हो सकता है। राज्य सरकारों को अपने क्षेत्र की समस्याओं को प्राथमिकता देकर विकास योजनाएँ बनानी चाहिए, लेकिन यदि राष्ट्रीय चुनाव के साथ यह प्रक्रिया हो रही हो, तो राष्ट्रीय पार्टियों के एजेंडे के कारण इन योजनाओं की प्राथमिकता कम हो सकती है। इसका परिणाम यह होगा कि राज्य स्तर पर विकास कार्यों में देरी होगी और कई आवश्यक योजनाएँ सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दों के दबाव में आकर उपेक्षित रह सकती हैं।
राज्य की स्वायत्तता पर असर
संविधान में केंद्र और राज्यों की भूमिकाएँ स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं, और दोनों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं। राज्य चुनावों में राज्य सरकारें अपने राज्य के मुद्दों पर वोट मांगती हैं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय इंफ्रास्ट्रक्चर, कृषि आदि। इन मुद्दों पर राज्य सरकार की स्वायत्तता रहती है, जो उसे राष्ट्रीय मुद्दों से स्वतंत्र होकर काम करने की शक्ति देती है। लेकिन अगर राष्ट्रीय और राज्य चुनाव एक साथ होते हैं, तो राज्य सरकारें राष्ट्रीय पार्टियों की छत्रछाया में दब सकती हैं। इससे राज्य की स्वायत्तता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और राज्यों की निर्णय लेने की क्षमता कमजोर हो जाएगी।
वित्तीय बचत का मिथक
‘एक देश एक चुनाव’ के समर्थक यह कहते हैं कि इससे चुनाव खर्च में कमी आएगी, यह वास्तव में अधपका और भ्रामक तर्क है। ‘एक देश, एक चुनाव’ के समर्थकों का प्रमुख तर्क यह है कि इससे चुनावी खर्चों में कमी आएगी। लेकिन चुनाव खर्च केवल धन की बात नहीं है, यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। चुनाव लोकतंत्र का एक प्रमुख हिस्सा हैं और इनमें किया जाने वाला खर्च सार्वजनिक धन को सार्थक बनाता है। चुनावी खर्चों का यह मतलब नहीं है कि जनता के पैसे का दुरुपयोग हो रहा है, बल्कि यह लोकतंत्र के स्थायित्व स्वरूप को आगे बढ़ाने और बचाए रखने के लिए आवश्यक है। इसके अलावा, एक साथ चुनावों का आयोजन करने से प्रशासनिक खर्चों में कोई बड़ी कटौती संभव नहीं है, क्योंकि चुनाव की तैयारी और सुरक्षा में लगने वाला खर्च वैसे भी स्थायी बना रहेगा।
सरकार की जवाबदेही में कमी
बार-बार चुनाव होने से सरकारें जनता के प्रति अधिक जिम्मेदार रहती हैं। उन्हें जनता की अपेक्षाओं और माँगों को पूरा करने के लिए लगातार काम करना पड़ता है। अगर ‘एक देश, एक चुनाव’ की प्रणाली लागू की जाती है, तो सरकारों की जवाबदेही कम हो सकती है, जो कि अत्यंत घातक स्थिति होगी। उन्हें अगले चुनाव तक पाँच साल का समय मिलेगा, जिसके दौरान वे बिना किसी डर के काम कर सकती हैं, ऐसे में सरकारें निरंकुश हो सकती हैं। इनका परिणाम यह होगा कि सरकारें अपने वादों को लेकर उतनी गंभीर नहीं होंगी, क्योंकि उन्हें अपने कार्यकाल के बीच में जनता की परीक्षा देने का डर नहीं होगा।
राज्य चुनाव और आम चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं, तो मतदाता अपने राज्य के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और राज्य की आवश्यकताओं के अनुसार सरकार चुन सकते हैं। अगर दोनों चुनाव साथ होते हैं, तो इस बारीकी से निर्णय लेने की प्रक्रिया कमजोर हो जाएगी, और राज्य के मसलों पर केंद्र के मुद्दों का वर्चस्व हो सकता है, जो किसी भी रूप में अच्छा नहीं है। – रुसेन कुमार
(कापीराइट – रुसेन कुमार)