यह चित्र स्वयं में एक मुकम्मल कहानी है। एक नाव में कुल चार लोग सवार हैं। यह नाव किसी बहती नदी में चल रही है। वे नदी के उस पार जाना चाहते हैं। क्योंकि उनकी मान्यता है कि उनकी पसंदीदा चीजें नदी के उस छोर पर ही मिलती है। उनमें से किसी को तैरना नहीं आता। अतः वे नाव के सहारे शीघ्र उस पार पहुँचना चाहते हैं। उनकी यात्रा जारी है। इसी बीच नाव में छेद हो जाता है। नाव के एक छोर में पानी भरने लगा है। आधे यात्री नाव के एक कोने पर तो दूसरी ओर शेष यात्री नाव के दूसरे हिस्से पर जा बैठते हैं। छेद वाली छोर पर पानी भरने लगा है। इससे नाव का संतुलन बिगड़ने लगता है। अब कोई भी व्यक्ति नाव को खेने का काम नहीं कर रहा है।
नाव के डूबने का डर है। नाव स्थिर होकर पानी की बहाव की दिशा में असंतुलि ढंग से बढ़ रही है। डर के कारण अब वे भूल चुके हैं कि उन्हें नदी के उस पार मंजिल पर पहुँचना है। अब उनकी प्राथमिकता पूरी तरह बदल चुकी है। अब जीने-मरने का प्रश्न है। जिस छोर पर छेद नहीं है, उस तरफ के यात्री को लगता है कि चलो अच्छा हुआ कि छेद उनकी तरफ नहीं है। वे अभी भी निश्चिंत हैं।
दूसरी ओर दो अन्य यात्री पानी को उलीचने लगे हैं। उनका मानना है कि पानी को उलिचा नहीं गया तो नाव डूब जाएगी। नाव में छेद क्यों और कैसे हुआ, इसको लेकर किसी में दिलचस्पी नहीं है और न ही अभी इस तरह के बेतुके सवाल के लिए समय है, क्योंकि जब जीवन के अस्तित्व पर खतरा रहता है तो इस तरह के सवालों की कोई प्रासंगिकता नहीं रहती।
क्या यह चित्र वर्तमान समाज और लोगों के सोचने-विचारने के ढंग के बारे में सटीक चित्रण नहीं करता? वास्तव में यह कहानी हमारे ही बारे में है, हमारी मानसिकता के बारे में है। हम सब प्रतीकात्मक रूप से एक विशाल नाव पर सवार हैं। हर जगह नाव के अर्थ बदल जाते हैं। घर हमारे लिए एक नाव है। परिवार एक छोटी-सी नाव है। मोहल्ला भी एक नाव है। ग्रामीणों के लिए उनका गाँव एक नाव है। जिला वासियों के लिए उनका जिला भी एक नाव है। राज्य भी एक वृहद नाव है। राष्ट्र एक विशाल नाव है। हम सब किसी न किसी नाव का हिस्सा हैं। मनुष्य समाज से अलग नहीं हो सकता है। मनुष्य के लिए उसका समाज और राष्ट्र ही नाव है।
समस्याओं का नाम ही संसार है। प्रकृति हमेशा उलट-फेर करती रहती है। कभी रोग फैल जाएगा, तो कभी तूफान आ जाएगा। कभी घने जंगल में आग लग जाती है तो कभी भूकंप से कुछ ही मिनटों में सब कुछ ध्वस्त हो जाता है। कभी बाढ़ के कारण पूरा इलाका जलमग्न हो जाता है तो कभी एक बूंद पानी भी नहीं बरसता। महामारी के कारण लाखों लोग मर जाते हैं तो कभी पता नहीं अरबों की संख्या में टिड्डे कहाँ से आ जाते हैं।
वास्तव में विविधता और अनिश्चितता ही प्रकृति की विशेषता है। प्रकृति को न कोई समझ पाया है और नहीं कभी समझ पाएगा। प्रकृति पल-पल परिवर्तनशील है। इसीलिए कहा गया है कि केवल परिवर्तन ही स्थायी है। मनुष्यों के लिए हर पल, हर दिन चुनौतियों से भरा है। मनुष्य का जीवन भी अनिश्चित है।
संसार में हमेशा से दो स्वभाव वाले लोग पाये जाते हैं। एक समस्याओं के बारे में उदासीन रहते हैं और दूसरे समस्याओं का निदान खोजने का प्रयास करते हैं। एक व्यक्ति को इसलिए कोई फिकर नहीं है क्योंकि उसके हिस्से वाले जंगल में आग नहीं लगी है, जबकि दूसरे व्यक्ति को लगता है कि उसे आग न फैले इसका उपाय सोचना चाहिए।
आप किसी भी कोने में रहें आग सबको बराबर जलाती है। आग का काम है जलाना। नदी में पानी का काम है नाव को डुबोना। नाव डूबेगी तो सब डुबेंगे। बारिश आएगी तो सबको भिगोएगी। समस्या आएगी तो सब परेशान होंगे। तूफान आएगा तो सबको उड़ाएगा। धूप खिलेगी तो सबको तपाएगी। हरियाली फैलेगी तो सबको शीतलता देगी। प्रेम बढ़ेगा तो सब आनंदित होंगे। संगीत बजेगा तो सबको सुकून देगा।
दुनिया में जो कुछ भी है वह सबका है और सबके लिए है। यहाँ निजी कुछ भी नहीं। यहाँ सब सझियारा है। अपने मन पर थोड़ी बुद्धि लगाइए और स्वयं से पूछिए कि आप किस तरह के नाव में सवार हैं और किस प्रकार के स्वभाव वाले व्यक्ति हैं। अपनी नाव को देखिए कि उसमें कहीं कोई छेद तो नहीं हो गई है?